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________________ शरीर को शिथिल कर दो। वचनों के प्रकम्पन को समाप्त कर दो। और ध्यान कर लो, यानी मन को भी स्थिर कर लो। श्वास मंद, मन शान्त, वचन शान्त तथा शरीर निष्क्रिय और निश्चेष्ट की स्थिति आती है, तब स्मृति को उत्तेजित करने का कोई भी साधन नहीं रहता। न बाहर से कोई प्रत्यय होता है, जो स्मृति को उत्तेजित कर सके। क्योंकि इन्द्रियां समाप्त हो जाती हैं, उस स्थिति में अपने आप प्राण ऊपर चला जाता है, श्वास ऊपर चला जाता है, मन्द हो जाता है और स्मृति-शून्यता की, निर्विकल्प प्रत्यक्ष की स्थिति हमारी चेतना में आ जाती है। हम सविकल्प प्रत्यक्ष से निर्विकल्प प्रत्यक्ष की स्थिति में आ जाते हैं । सविकल्प चेतना से निर्विकल्प चेतना की स्थिति में आ जाते हैं। यह है हमारी स्मृति-शून्यता की स्थिति। जब श्वास हमारा नियंत्रित, शरीर हमारा नियंत्रित और मन हमारा नियंत्रित ज्ञानपूर्वक हो जाता है तो उस स्थिति में अपने आप चेतना को ऊपर जाने का मार्ग मिल जाता है, ऊर्ध्वारोहण हो जाता है और चेतना के ऊर्वारोहण में कोई प्रत्यक्ष बाधा उस स्थिति में नहीं आती। प्रश्न : समाधान प्रश्न-लम्बे समय तक साधना की जाती है, फिर भी जो उपलब्धियां होनी चाहिए नहीं होतीं। इसमें क्या शरीर के विषय में अज्ञान है या नाड़ियों का ज्ञान न होना है ? कौन-सा तत्त्व बाधक है ? उत्तर-भारतीय योग में इस प्रश्न को दो दृष्टियों से विचारा जाता है। प्रथम तो यह कि हमारे पुराने संस्कार कैसे हैं ? हम केवल शरीर और नाड़ी संस्थान तक ही सीमित नहीं रह सकते। यद्यपि उस साधन को भुला नहीं सकते। बहुत महत्त्वपूर्ण साधन है, फिर भी उसके आगे सूक्ष्म संस्कार होता है, जिसे कर्म कहते हैं। यदि हमारे संस्कारों की अनुकूलता है, यानी ऐसा कोई कर्म बाधक नहीं है और हमें साधना की प्रक्रिया का ठीक ज्ञान है तो साधना के मार्ग में हम चलना शुरू हो जाते हैं। अब लम्बी अवधि का जो प्रश्न है, वह चेतना जगत् का है। क्योंकि एक यांत्रिक चीज़ होती है, वह उतने समय में ही बन जाती है। एक धागा बनता है, एक कपड़ा बनता है। निश्चित समय है। इतने समय में धागा बन जायेगा, इतने समय में कपड़ा बन जायेगा । अचेतन के प्रति तो यह नियम किया जा सकता है, किन्तु जहां चेतना की स्वतंत्रता और संस्कारों की विचित्रता है, वहां यह लम्बी अथवा छोटी अवधि का नियम नहीं बनता है। भगवान् महावीर ने पूर्व-जीवन की साधना के बाद भी साढ़े बारह वर्ष तक अनवरत साधना की। जागरूक साधना की। इतनी जागरूक साधना की जो हर व्यक्ति के लिए संभव नहीं। साढ़े बारह वर्ष के बाद केवलज्ञान की उत्पत्ति हुई और तीर्थंकर मल्लिनाथ जिस दिन दीक्षित ८० : चेतना का ऊर्वारोहण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003090
Book TitleChetna ka Urdhvarohana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1978
Total Pages214
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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