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में ले जाओ। जब प्राण सुषुम्ना में चला जायेगा, तो वायु का जो आघात मस्तिष्क पर लगता है वह समाप्त हो जायेगा। स्मृति-कोष्ठों पर जो आघात लगता है वह समाप्त हो जायेगा। कोई भी व्यक्ति प्राण को मध्यवर्ती किए बिना, सुषुम्ना में ले जाए बिना, स्मृति-चक्र से मुक्ति पा सके, यह बहुत कठिन बात है।
भगवान् महावीर ने कहा-ममत्थो निज्जरापेही। मध्यस्थ का अर्थ हम करते हैं-राग नहीं, द्वेष नहीं, समता में रहने वाला । अर्थ तो ठीक है पर सूत्रकार का क्या इतना ही आशय था? क्योंकि जो अर्थ चल रहे हैं वे इतने ही नहीं हैं।
मैं एक पुस्तक पढ़ रहा था। उसमें एक शब्द आया-महावीथी । तत्काल आचारांग का एक वाक्य ध्यान में आया--पणया वीरा महावीही-अर्थात् वीर मनुष्य वह है जो महावीथी पर उतर पड़े। ऐसे कोई अर्थ समझ में नहीं आया। महावीथी पर चल पड़े यानी राजमार्ग पर चल पड़े। राजमार्ग हो तो उस पर चले, संकरी पगडंडी आ जाये तो उस पर चले । यह स्पष्ट दीख रहा है कि अभिधा का अर्थ तो यहां नहीं है। महावीथी का एक सांकेतिक अर्थ रहा है। इसका अर्थ यह क्यों नहीं हो सकता कि साधना की जो महावीथी-कुंडलिनी है, उस पर जो चल पड़ा है, वह सचमुच वीर आदमी है। महावीथी अर्थात् कुंडलिनी।
आप किसी भी तंत्र के ग्रन्थ को उठाकर देखिये, आपको यह मिलेगा कि जिस व्यक्ति के प्राण ने सुषुम्ना में प्रवेश नहीं किया, वह संकल्पों से मुक्ति नहीं पा सकता। ____ 'मज्झत्थो निज्जरापेही वह मध्यस्थ होता है, क्योंकि निर्जरापेक्षी है। बहुत निर्जरा करता है। निर्जरा करने की बहुत सुन्दर प्रक्रिया है-प्राण का सुषुम्ना में प्रवेश । आन्तरिक स्मृति को जो उत्तेजनाएं होती हैं, उनके उपशमन का मार्ग है-प्राण का मध्यवर्ती होना। न इधर, न उधर । मध्य में आ जाना। संतुलन स्थापित करना। स्मृति पर होने वाले प्राण के आघातों को कम करने के लिए हम प्राण को मध्यवर्ती बनायें। मध्यस्थ बनें। संतुलित बनें।
एक बात और है । समता का भाव जैसे ही आया, वैसे ही आप चाहें या न चाहें, जानें या न जानें, प्राण मध्यवर्ती हो जायेगा। यह समता और प्राणों का मध्यवर्ती होना, दोनों ही जाने-अनजाने सध जाते हैं। अगर आप प्राण को मध्य में ले जायेंगे तो आपके मन में समता का प्रवाह बहने लगेगा। और समता में आप चले गये तो आपका प्राण मध्यवर्ती हो जायेगा। यह हमारी आंतरिक प्रक्रिया है। इन दोनों से स्मृतियों का जो ताना-बाना है, वह स्वयं शान्त हो जायेगा।
प्रश्न-स्मृति, विचार और कल्पना हमारे मन को चंचल करते हैं। इन हेतुओं का निरसन करने के लिए दो क्रियाएं हमारे सामने हैं-एक योग की और दूसरी मनोविज्ञान की। दोनों में किसको मान्यता दी जाये ?
उत्तर-मनोवैज्ञानिक बड़े विचित्र ढंग से आदतों का निवारण करते हैं।
चंचलता का चौराहा : ६७
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