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वाले कर्म को हम समाप्त कर देते हैं । अगर स्थितियों में, निमित्तों में तथा द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव में परिवर्तन किया तो उदय में आने वाले को विफल बना देते हैं, संक्रमण कर देते हैं । उदीरणा करके अन्यथा कर देते हैं। कर्म बंधा था पाप का। अशुभ पुद्गलों का संचय किया था। ऐसा तीव्र प्रयत्न किया शुभ भावों का, कि सारे के सारे पुद्गलों को पुण्य में बदल दिया। संक्रमण कर दिया। हमने निमित्तों को बहुत गौणता दी है किन्तु उतनी गौणता नहीं है । निमित्तों का भी बहुत बड़ा स्थान है । हम 'अश्रुत्वा-केवली' जैसी बात को छोड़ दें। वह भी घटित होता है, जिस व्यक्ति ने धर्म को नहीं सुना, कोई निमित्त का आश्रय नहीं लिया, केवली बन जाता है. उत्कृष्ट साधक बन जाता है। किन्तु अश्रुत्वा-केवली की बात प्रक्रिया नहीं हो सकती। प्रक्रिया होगी श्रुत्वा-केवली' की-जो सुनकर के केवली बनता है। अगर हम व्यवस्था पर विचार करें तो हमें इस बात पर बहुत अधिक महत्त्व देना होगा कि शरीर और श्वास की प्रक्रिया से हम चलें। यह प्रक्रिया सचमुच एक वैज्ञानिक प्रक्रिया होगी। प्रक्रिया की दृष्टि से जहां हमारा विचार है, वहां हमें प्रक्रिया के सन्दर्भ में शरीर और श्वास, इन दोनों को गहराई से समझकर फिर मन का स्पर्श करना चाहिए। वह हमारी उचित प्रक्रिया होगी।
प्रश्न-संस्कार के केन्द्र को किस प्रकार संयत किया जाये ?
उत्तर-संस्कार संचित रहते हैं । यह संचय-शक्ति, निमित्त के बिना जागृत नहीं होती। अमुक व्यक्ति को मैंने देखा। पांच वर्ष हो गये, मुझे याद नहीं आया। किन्तु सामने ऐसी पगड़ीवाला आदमी आता देखा और तत्काल दूर से ही सोच लिया कि यह अमुक व्यक्ति है । यह अमुक की स्मृति क्यों हुई ? पगड़ी के निमित्त से हुई। यह व्यक्ति की आकृति के निमित्त से हुई। संस्कार जागृत होता है विषय की उत्तेजना पाकर। प्रतिसंलीनता का और मतलब क्या है ? इंद्रियों की प्रतिसंलीनता (प्रत्याहार) करो अर्थात् संस्कार को विस्मत करो। संस्कार की विस्मति की एक साधना है-प्रतिसंलीनता । अब रहा संस्कार के जागरण का आंतरिक निमित्त । वह है शरीर का क्षोभ, प्राण का क्षोभ और वायु का क्षोभ । वायु पर विजय पाना बहुत ज़रूरी है। प्राण पर विजय पाना बहुत ज़रूरी है। ____ आप स्वयं अनुभव करते होंगे कि जिस दिन आपके शरीर में वायु बहुत ज़्यादा हो जाती है, आपको बेचैनी-सी अनुभव होती है। और ऐसा लगता है कि इतने विचार ऊपर से आते जा रहे हैं कि मानो विचारों का सागर ही उमड़ पड़ा है । और अधिक वायु हो जाती है तो लोग बहकने लग जाते हैं, बातचीत करने लग जाते हैं। वायु का प्रकोप होने पर स्वप्न भी बहुत आने लग जाते हैं। वाय की तीव्रता, हमारे जो संस्कार-केन्द्र हैं, स्मृति के कोष्ठ हैं, उन पर आघात पहंचाती है। इसीलिए योग के आचार्यों ने इस पर काफी चिंतन करके एक मार्ग निकाला कि प्राण को मध्य में ले जाओ-इड़ा और पिंगला इन दोनों से हटाकर सुषम्ना
६६ : चेतना का ऊर्वारोहण
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