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उलटते हैं, प्राणवायू ऊपर मस्तिष्क में चली जाती है। और प्राणवायू के ऊपर जाने का अर्थ है-मानसिक विकल्पों की शांति। यह महाप्राण ध्यान का पहला चरण है। भद्रबाहु स्वामी ने महाप्राण ध्यान किया था। आचार्य आषाढ़भूति ने महाप्राण ध्यान की साधना की थी। महाप्राण ध्यान की साधना क्या है ? वायु को, प्राण को, सिर में केन्द्रित कर देना । एक बिन्दु पर केन्द्रित कर देना, जिससे प्राण की सारी क्रिया समाप्त हो जाये। जीभ को ऊपर उलटने का मतलब है महाप्राण ध्यान का पहला चरण। आपको सोचने की ज़रूरत नहीं, आपको और कुछ करने की ज़रूरत नहीं। जैसे ही जीभ को उलटकर आप बैठ गये, आपका प्राणवायु अपने आप ही ऊपर जाना शुरू हो जायेगा। अगर कोई व्यक्ति घंटा भर रह जाये तो कितना आनन्द उसे मिलता है । जीभ को उलटकर घंटों तक बैठ जाना बड़ी कठिन साधना है। कितनी ऊष्मा बढ़ जाती है ! चलते-फिरते अगर यह क्रिया करें तो फफोले भी पड़ जाते हैं। किन्तु शान्तवत्ति में करने से प्राणवायु ऊपर चली जाती है, फिर यह कोई प्रश्न नहीं रहता कि मन कैसे शान्त हो, मन का विकल्प कैसे मिटे और चंचलता कैसे मिटे ? फिर प्रश्न यह हो सकता है कि चंचलता कैसे आये ? चंचलता को लाना पड़ता है। ये दो उदाहरण मैंने अभी आपके सामने प्रस्तुत किये, एक खेचरी मुद्रा का या जीभ को उलटकर बैठने का और दूसरा जालन्धर बंध का-कंठकूप में संयम करने का। उससे व्यानवायु पर विजय होती है और इससे प्राणवायु ऊपर जाता है। न जाने कितने सम्बन्ध हैं शरीर के हमारे । अगर शरीर और प्राण के सारे सम्बन्धों को हम समझ लें और थोड़ा-सा भी अभ्यास करें तो फिर यह मन का प्रश्न, मन की चंचलता का प्रश्न, स्मतियों की उधेड़-बुन का प्रश्न, विचार का प्रश्न, हमारे लिए रहता ही नहीं। ___ इस सारी प्रक्रिया में मन को शून्य बनाना एक मुख्य बात है। चेतना के उद्घाटन के लिए मन को शून्य करना ज़रूरी है। मन की दो अवस्थाएं हैंशून्य और परमशून्य । मन की शून्यता के लिए शरीर और वायु पर ध्यान केन्द्रित करना बहुत ज़रूरी है। इस संदर्भ में हमने श्वास पर विचार किया, शरीर पर विचार किया। और जब ये दोनों ठीक हो जाते हैं तो मन अपने आप शून्य हो जाता है। मन के लिए अलग से कोई प्रयत्न करने की ज़रूरत नहीं, मन अपने आप शून्य हो जाता है। आज हमने शून्य को भरने का प्रयत्न नहीं किया, किन्तु भरे हुए को शून्य करने का प्रयत्न किया है।
आचार्यश्री ने कहा-अगर हम कारणों को पहले मिटा दें तो कार्य को मिटाने का प्रयत्न हमें नहीं करना पड़ता है। और अच्छा यही है कि हम उन कारणों को मिटा दें। निमित्त जब नहीं रहेगा, उपादान नहीं रहेगा, दोनों का मिश्रित योग नहीं होगा तो कार्य की निष्पत्ति होगी ही नहीं। इसलिए यदि हम मन को शान्त करने का प्रयत्न करते हैं और मन को उभारने के कारणों को ज्यों का त्यों रखते
चंचलता का चौराहा : ६३
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