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व्यानवायु को जीतना ।
लाडनूं की बात है । एक व्यक्ति बैठा था । उसने कहा- यहां से तीसचालीस मील की दूरी पर एक मठ है । मैंने वहां जाकर पूछा एक संन्यासी से - आपके यहां ध्यान की पद्धति क्या है ? उन्होंने बताया- हम तो विशेष नहीं जानते | इतनी-सी हमारी परम्परा है कि ध्यान करने के लिए जब मन को स्थिर करना होता है तो कंठकूप में ठुड्डी को टिका देते हैं और फिर ध्यान करते हैं । इससे मन शांत और स्थिर हो जाता है ।
मैंने उससे कहा कि तुमने मूल बात को पकड़ा है । क्योंकि व्यानवायु के साथ मन का संयोग होने से संकल्प-विकल्प पैदा होते हैं, स्मृतियां उभरती हैं । शरीर की चेष्टाएं चालू होती हैं । व्यानवायु को जीतने का सबसे मौलिक और सुन्दर उपाय है, कंठ पर संयम करना । जब कंठ पर संयम कर लिया जाता है, तो फिर संकल्प कहां से आयेगा ? फिर विकल्प कहां से आयेगा ? फिर कल्पना कहां से आयेगी ? अपने आप संकल्प, विकल्प और कल्पनाएं समाप्त हो जाएंगी और मन की स्थिरता अपने आप सध जायेगी ।
शरीर को समझे बिना क्या हम मन की स्थिरता का उपाय समझ सकते हैं ? हम परिपार्श्व को नहीं समझें, शरीर को नहीं समझें, श्वास को नहीं समझें तो केवल मन को स्थिर करने की बात कभी भी नहीं समझी जा सकती । प्रक्रिया को समझे बिना मूल विषय को नहीं समझ सकते । दूसरी एक बात मैं आपके सामने और रखूंगा। मद्रास में एक व्यक्ति मिला। जैन था और श्रीमद् रायचन्द की परम्परा में विश्वास रखता था । उस व्यक्ति ने कहा- महाराज ! क्या करें ? आज के हमारे जैन लोग और मुझे कहना चाहिए कि जैन मुनि भी ध्यान की परम्परा से बहुत दूर चले गये । उन्हें पता ही नहीं कि हमारी परम्परा क्या है ? मैंने कहा- तुम करते हो ध्यान ? हां, करता हूं। किस परंपरा से करते हो ? जैन की परंपरा से करता हूं। मैंने पूछा- क्या परम्परा है जैन की ? उसने कहा कि जो मुझे गुरु के द्वारा प्राप्त हुई है । जैनों के ध्यान करने की सीधी परम्परा यह है कि जीभ को उलट दो। बैठ जाओ । मन स्थिर और शांत हो जायेगा । इसे हठयोग में कहा गया है ' खेचरी मुद्रा' । इसे जैन परंपरा में कहा गया है - संवर करना । संवर कैसे होगा ? जीभ को उलटकर बठ जाओ, संवर हो जायेगा । मन का संवर, वाणी का संवर और काया का संवर । मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और काय गुप्ति - अपने आप ही सध जायेगी ।
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बात बहुत अच्छी थी । खेचरी मुद्रा के बारे में मैं जानता था । किन्तु जैनों की यह प्रक्रिया है, यह बात मैंने मद्रास में उस भाई से सुनी। इसका भी आशय स्पष्ट होता चला गया । सब वायु में मूल वायु है प्राण । व्यान आदि सब उसी के अवांतर भेद हैं। मूल है प्राण | जीभ को उलटने से क्या होता है ? जैसे ही जीभ को
६२ : चेतना का ऊर्ध्वारोहण
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