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________________ वायु न हो, श्वास न हो तो शरीर बिलकुल खंभे जैसा बन जायेगा । ज्ञानवाही तंतु न हों, चेष्टावाही तंतु न हों तो भी यही स्थिति उत्पन्न हो जायेगी । ज्ञानवाही तंतु को काट देने से हाथ चेष्टा करेगा पर जान नहीं पायेगा । चेष्टावाही तंतु को काट देने से वह जान सकेगा परन्तु चेष्टा नहीं कर पायेगा । मनोविज्ञान ने ऐसे कई प्रयोग किये हैं। एक व्यक्ति के चेष्टावाही तंतुओं को काट दिया । सामने दृश्य है, देखता है पर कोई क्रिया करने की उसमें क्षमता नहीं है । कुछ भी नहीं कर सकता । हाथ को नहीं चला सकता। ये दोनों बराबर मिलते हैं— ज्ञानवाही तंतु और चेष्टावाही तंतु । फिर कल्पना और स्मृति का योग होता है । तत्काल वह क्रिया निष्पन्न हो जाती है । वायु से क्रिया होती है । पूज्यपाद विद्यानन्द ने बहुत सुन्दर लिखा है प्रयत्नाद् आत्मनो वायुः, रागद्वेषप्रवतितात् । वायो: शरीरयन्त्राणि, वर्तन्ते स्वेषु कर्मसु ॥ आत्मा के प्रयत्न से वायु पैदा होती है । उस वायु से शरीर का सारा यंत्र संचालित होता है, सारी क्रियाएं निष्पन्न होती हैं । वायु की बहुत बड़ी मुख्यता है । शरीर और वायु इन दोनों को ठीक समझें तो हम चंचलता को ठीक समझ सकते हैं, स्थिरता को समझ सकते हैं। चंचलता को मिटा सकते हैं और स्थिरता को प्राप्त कर सकते हैं। अगर शरीर और वायु को ठीक न समझें तो हम कुछ भी नहीं कर सकते । चौदह पूर्व हैं । उनमें एक पूर्व था 'प्राणावाय', जिसमें सारा प्राण का विवेक था । वायु का विवेचन था । प्राण और अपान का विवेचन था। आज वह नहीं रहा । इतना बड़ा महत्त्व का है यह काम कि यदि हम ठीक प्राण को समझ लें, शरीर की रचना को ठीक समझ लें, तो फिर यह नहीं सोचेंगे कि मन स्थिर क्यों नहीं होता ? मन को पकड़ने की ज़रूरत नहीं है । हम मन को तो अपने आप वैसे ही कर लेते हैं कि शेष बंगाल को विजित किया, ढाका अपने आप घिर जायेगा । जब घिर जाता है, मन कहां टिक पायेगा ? मन फिर चल नहीं हो सकता । पांच वायु मुख्य मानी गयी हैं--प्राण, अपान, समान, उदान और व्यान । व्यानवायु हमारी त्वचा में व्याप्त रहती है । तिब्बत के योगी इसे कुछ भिन्न प्रकार से मानते हैं । वे व्यानवायु का मुख्य केन्द्र मानते हैं जननेन्द्रिय के पास । उनकी दृष्टि में व्यानवायु का केन्द्र वहां है। संकल्प क्या है ? विकल्प क्या है ? व्यानवायु के साथ मन का योग होना, इसका नाम है संकल्प और विकल्प। आप व्यानवायु से मन को हटा लीजिए, संकल्प-विकल्प उत्पन्न ही नहीं होंगे । । इसीलिए जालंधर बंध की योजना की है जालधर बंध करना, कंठ में संयम करना । कंठ Jain Education International व्यानवायु को जीतने के लिए में संयम करने का अर्थ है— चंचलता का चौराहा : ६१ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003090
Book TitleChetna ka Urdhvarohana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1978
Total Pages214
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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