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________________ बरस रही थी, कल्पना में नया और जुड़ गया। बरसना भी जोड़ दिया और आग को भी जोड़ दिया। गर्मी चली गयी। आग बरस रही थी, आग और बरसना दोनों आ गये । यह हो जाती है हमारी कल्पना । कल्पना, स्मृति और विचार-ये चंचलता के तीन रूप हैं। तीनों मन की क्रियाएं हैं। तीनों अलग नहीं हैं । एक ही मन की प्रक्रिया और शृंखला में ये होते हैं। मन की क्रिया में स्मृति होती है, मन की क्रिया में विचार होता है, मन की क्रिया में कल्पना होती है। तीनों मन की क्रिया में होते हैं । और एक ही साथ तीनों चलते हैं। इसी का नाम है चंचलता। स्मृति की उधेड़बुन, कल्पना का तानाबाना और विचार की शृंखला, इसका नाम है चंचलता। चंचलता कहिए, चाहे मन की क्रियाशीलता कहिए, चाहे संस्कारों की क्रियाशीलता कहिए, एक ही बात है। यह तो स्वाभाविक प्रक्रिया है मन की। मन के लिए कोई बुरी बात नहीं है। मन का काम है गतिशीलता। मन का काम रुकना नहीं है। मन का काम है गतिशील होना और गतिशील रहना। जब हम मन को उत्पन्न करेंगे, मन को रखेंगे तो मन का यह निश्चित काम है, और उसी काम से मन चलता है। अब फिर प्रश्न आता है स्थिरता का। स्थिरता क्या है, यह बताने की ज़रूरत नहीं है । स्मति का न होना, कल्पना का न होना और विचार का न होना, स्थिरता है। बड़ी कठिन बात है। हमारी आदत भी बन जाती है। एक संस्कार संस्कार मात्र होता है, और एक संस्कार आदत बन जाती है। जो संस्कार गाढ़ हो जाता है, वह आदत बन जाती है। एक बात को बार-बार दुहराइए, बार-बार याद कीजिए, बार-बार ध्यान केन्द्रित कीजिए. वह विचार संस्कार से आगे आदत का रूप ले लेता है। और आदत बनने के बाद ऐसी कठिनाई है, कि हम चाहें या न चाहें, वह काम हमें करना पड़ जाता है। क्योंकि आदत में संस्कार की प्रगाढ़ता हो जाती है। एक कहानी है । वह हमारी मनःस्थिति को बहुत सुन्दर ढंग से स्पष्ट करती है। तीन मित्र थे और तीनों में एक-एक आदत थी। एक की आदत थी बार-बार आंखों को खुजलाना, आंखों पर हाथ फेरना । दूसरे की आदत थी शरीर को बारबार खुजलाना। और तीसरे की आदत हो गयी कि पानी में बार-बार हाथ डालना। ये आदतें कोई काम की नहीं थीं। कोई उपयोग भी नहीं था इनका। पर आदत में उपयोग और अनुपयोग का सवाल नहीं उठता। प्रश्न है संस्कार की प्रगाढ़ता, स्मृति की प्रगाढ़ता । जिसकी स्मृति बहुत गाढ़ बन जाती है, जो संस्कार बहुत गाढ़ बन जाता है, वह काम चाहे-अनचाहे व्यक्ति कर लेता है। उनकी भी ऐसी आदत हो गयी थी। दूसरे व्यक्तियों को बुरा भी लगता। आसपास के लोग टोकते भी, पर करें क्या ? उनकी तो विवशता थी संस्कार की । एक व्यक्ति ने एक दिन प्रस्ताव किया कि तुम लोग अगर ये आदतें छोड़ दो तो हम तुम्हें पुरस्कार चंचलता का चौराहा : ५६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003090
Book TitleChetna ka Urdhvarohana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1978
Total Pages214
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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