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________________ अब प्रश्न है कि मन चंचल है। आखिर चंचलता क्या होती है ? इसे पहले समझना चाहिए । जब तक हम चंचलता को नहीं समझेगे तब तक मन को स्थिर करने के हमारे सारे प्रयत्न विफल हो जाएंगे। पहले हमें समझना है कि चंचलता क्या है ? इसके लिए हमें शरीर पर जाना होगा। हमारा शरीर ज्ञान करने का माध्यम है। शरीर में दो ज्ञान-केन्द्र होते हैं-एक मस्तिष्क या बृहद् मस्तिष्क, दूसरा मेरुदंड । ये दो मुख्य केन्द्र हैं। सारे शरीर में तंतुओं का एक जाल जैसा है। उन तंतुओं में दो प्रकार के तंतु हैं-एक ज्ञानग्राही और एक ज्ञानवाही। मूली की जड़ में रेशे होते हैं जो रस का आकर्षण करते हैं, रस को खींचते हैं। उसी प्रकार हमारे तंतुओं में एक रेशे जैसे होते हैं। वे रेशे विषय को ग्रहण करते हैं और उनके द्वारा ग्रहण किया हुआ विषय आगे के तंतु (ज्ञानवाही तंतु) मस्तिष्क तक पहुंचा देते हैं मेरुदंड के माध्यम से। ये ज्ञानवाही तंतु (Sensory Nerves) कहे जाते हैं। बृहद् मस्तिष्क का जो मध्यभाग है उसे भेजा, कारटेक्स कहा जाता है। ज्ञानग्राही तंतु विषय को पकड़ते हैं, फिर ज्ञानवाही तंतु उसे ले जाते हैं और मस्तिष्क के कारटेक्स तक पहुंचा देते हैं। फिर अनुभव होता है, प्रत्यय होता है। एक काम होता है ज्ञान का और दूसरा काम होता है चेष्टा का। मस्तिष्क में दो केन्द्र हैं-एक ज्ञानकेन्द्र (Sensory Centre) और एक चेष्टाकेन्द्र या क्रियाकेन्द्र (Motor Centre)। ज्ञानकेन्द्र का काम है ज्ञान को ग्रहण कर लेना। फिर अनुभव का आदेश होता है चेष्टाकेन्द्र को, क्रियाकेन्द्र को। वह फिर प्रवृत्ति करता है। पैर में कांटा चुभा, कांटा चुभते ही जो चुभन हुई, उसका ज्ञान ठेठ मस्तिष्क तक पहुंच जाता है। फिर वहां से हाथ को आदेश मिलता है कि कांटे को निकालो। चेष्टाकेन्द्र सक्रिय हो जाता है । क्रियाकेन्द्र का आदेश होता है और क्रियावाही तंतु सक्रिय होकर कांटे को निकाल लेते हैं। यह सारी व्यंजन से लेकर क्रिया करने तक की प्रक्रिया है। यह है हमारे शरीर की प्रक्रिया-ज्ञान करने की और क्रिया करने की। सर्दी है, हम बैठे हैं। ठंडी हवा चल रही है। हमें सर्दी लग रही है। यह है प्रत्यय या निर्विकल्प प्रत्यक्ष । इन्द्रिय का ज्ञान हो रहा है। यह इन्द्रियजन्य ज्ञान है । मनोविज्ञान की भाषा में इसे प्रत्यय (Percept) कहते हैं। यह इन्द्रिय का ठीक बोध है। अब यह होने के बाद जो हमारा प्रत्यय हुआ, इन्द्रिय का ज्ञान हुआ, उसके साथ फिर मन जुड़ता है। हमारी भाषा में पहले व्यंजन होता है। व्यंजन का मतलब है विषय के पुद्गलों का ग्रहण होकर मस्तिष्क तक पहुंच जाना। फिर उस व्यंजन का बोध होता है। मन का योग नहीं केवल इन्द्रियों का ज्ञान रहता है। यहां आते-आते मन साथ जुड़ जाता है और वह मानसिक विषय बन जाता है। फिर हम आगे चलते हैं। मन साथ में जुड़ा तब उस विषय में तर्क, ऊह, अपोह चंचलता का चौराहा : ५७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003090
Book TitleChetna ka Urdhvarohana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1978
Total Pages214
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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