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________________ जानते कि चन्द्रगुप्त और चाणक्य पाटलिपुत्र पर आक्रमण कर रहे हैं । पाटलिपुत्र पर धावा बोल रहे हैं। किंतु सीधे पाटलिपुत्र पर जाते हैं। महानंद बहत शक्तिशाली है, मार खाकर वापस आ जाते हैं। कितना मूर्ख और बेवकूफ़ है ! उसे इतना भी बोध नहीं कि पहले आसपास को जीतना चाहिए, और जब आसपास को जीत ले, शक्ति बढ़ा ले, फिर राजधानी पर आक्रमण करना चाहिए। तुम भी उसी की तरह मूर्ख हो। खिचड़ी के बीच में हाथ डालते हो। पहले खिचड़ी जो आसपास में ठंडी हो गयी है, उसमें हाथ डालना चाहिए था, खाना चाहिए था और खाते-खाते बीच की भी ठंडी हो जाती, उसे खा लेते। परंतु तुम तो सीधा बीच में हाथ डाल रहे हो। क्या तुम मूर्ख नहीं हो, ठीक वैसे ही जैसे चाणक्य है ?" चाणक्य को इतना अच्छा बोध मिला कि फिर वह मूर्ख नहीं रहा । यह एक कहानी है और इसलिए मैं कह रहा हूं कि मुझे लगा मैंने श्वास के विषय में और शरीर के विषय में पिछली गोष्ठियों में जो कहा, शायद कुछ श्रोताओं को या बहुत सारे श्रोताओं को ऐसा लगा होगा कि जहां बात चली थी कि मन को शान्त कैसे किया जाये, मन को एकाग्र कैसे किया जाये, वहां बात चल रही है शरीर की और श्वास की; जबकि हमें ध्यान केन्द्रित करना चाहिए मन पर। यदि हम पहले मन पर ध्यान केन्द्रित करते हैं तो हम भी चाणक्य जैसे और खिचड़ी खानेवाले जैसे मूर्ख बन सकते हैं। मन को पहले छूने की ज़रूरत नहीं है। हमें जब ध्यान करना है और ध्यान में स्थिर होना है, तो पहले मन पर ध्यान देने की कोई आवश्यकता नहीं है। पहले खिचड़ी जो ठंडी हो गयी है, उसे खा लेना है। हमें समझ लेना है कि मन के आसपास क्या क्रियाएं और प्रतिक्रियाएं होती हैं। जब हम शरीर को और श्वास को नहीं समझ पाते और सीधा मन को स्थिर करने का प्रयत्न करते हैं तो मूर्खता ही हाथ लग सकती है। यह कैसे हो सकता है ? इसके लिए थोड़ा विस्तार में जाना होगा। मन की स्थिति और मन की क्रिया को समझना हमारे लिए बहुत आवश्यक है। इसे स्थिर करना है। पहले इसे समझना है कि वह क्या है ? उसकी क्रिया क्या है ? प्रक्रिया क्या है और प्रतिक्रिया क्या है ? शरीर को समझे बिना यह नहीं समझा जा सकता। आचार्यों ने मनःपर्याप्ति के बारे में बतलाया। इन्द्रियों के विषय में बतलाया। निर्वत्ति इन्द्रिय, उपकरण इन्द्रिय-इनके बारे में बतलाया। किंतु आज मनोविज्ञान के संदर्भ में, आज के शरीरशास्त्र के संदर्भ में, उनका अध्ययन नहीं करते हैं तो हमारा ज्ञान प्रस्फुटित नहीं होता, विकसित नहीं होता। यदि हम प्राचीन साहित्य और मनोविज्ञान-दोनों का तुलनात्मक अध्ययन करते हैं तो विषय इतना स्पष्ट हो जाता है कि हमें समझने में बड़ी सुविधा होती है । ५६ : चेतना का ऊर्ध्वारोहण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003090
Book TitleChetna ka Urdhvarohana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1978
Total Pages214
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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