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अनुपात से इस व्यवस्था का भी विधान हुआ। किंतु योगवहन का यह मूल अर्थ नहीं लगता। हम थोड़े गहरे में जाएं तो अर्थ ढूंढ़ सकते हैं। जैन परंपरा में भावनायोग, संवरध्यानयोग और निर्जरायोग-ये तीन शब्द बहुत प्रचलित हैं। भावनायोग, संवरध्यानयोग की बहुत बड़ी प्रक्रिया रही है। स्थान-स्थान पर आता है-झाणकोट्ठोवगए। यह ध्यान-कोष्ठ क्या है ? यह है चित्त-निर्माण। ध्यान-कोष्ठ में चला जाना एक प्रकार के चित्त-कोष्ठ का निर्माण कर देना है। महाप्राण ध्यान और संवरध्यानयोग की एक ही प्रक्रिया है, यानी चित्त को निरोध करने की प्रक्रिया या आनापान को सूक्ष्म करने की प्रक्रिया। श्वास को इतना सूक्ष्म कर दिया जाता है कि आनापान को सूक्ष्म करनेवाला अंतर्मुहुर्त में चौदह पूर्वो (विशाल ज्ञान-राशि) का स्मरण कर लेता है। यह शब्द उस प्रक्रिया में, उस अर्थ में सम्भव लगता है। किंतु बाद में दूसरी परम्परा के साथ जुड़ गया और यह प्रक्रिया छूट-पी गयी। ऐतिहासिक दृष्टि से देखें तो आचार्य भद्रबाह और स्थलिभद्र के बाद हमारी परम्परा में बहुत बड़ा परिवर्तन आया । कई एक कठिनाइयां पैदा हुई हैं। काफी परिवर्तन आया है। हम स्वयं अनुभव करेंगे कि हमारी श्वेताम्बर परम्परा की अपेक्षा दिगम्बर परम्परा में ध्यान की पद्धति सुरक्षित रही है और जितने ग्रन्थ दिगम्बर आचार्यों के हैं ध्यान के विषय में श्वेताम्बर आचार्यों के उतने नहीं हैं। उन लोगों में साधना का बहुत अच्छा क्रम चला है। जो परम्परा बाद में रही उसमें बाह्य क्रिया ज्यादा आ गई। इन सारे तथ्यों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि योगवहन की जो मौलिक परम्परा थी वह विस्मृत हो गयी और यह उत्तरकाल की परम्परा आ गयी।
प्रश्न-मन और मस्तिष्क में क्या अन्तर है ?
उत्तर-मन भावना-प्रधान होता है और मस्तिष्क चिंतन-प्रधान । हमारी व्यावहारिक चेतना के तीन अंग हैं-भावना, चिंतन और क्रिया। ये तीनों हमारी प्रवृत्ति के मुख्य अंग हैं। भावना का स्थान माना जाता है हृदय, चिंतन का स्थान मस्तिष्क और क्रिया का स्थान सारा शरीर है।
अब रहा प्रश्न मन और मस्तिष्क का। एक प्रकार से हमें यह स्वीकार करना चाहिए कि मन और मस्तिष्क में बहुत गहरा संबंध है। मन स्वयं चिंतन का एक अंग है। क्योंकि जो भी विषय यह ग्रहण करता है, उस विषय का संवेदन मस्तिष्क तक पहुंचता है। हमारा मनः पर्याप्ति का केंद्र यह बहद् मस्तिष्क ही होना चाहिए। बृहद् मस्तिष्क में जो संवेदन पहुंचता है, वहां फिर उससे इनका अनुभव पूरा होकर और पर्यालोचन होता है। वह काम करता है मन। मन और मस्तिष्क-दोनों एक क्रिया से संबंधित हैं। शरीरशास्त्री या मनोवैज्ञानिक तो मानते हैं कि मस्तिष्क की क्रिया ही मन है। हम इस भाषा में न माने किंतु यह माने कि मन की प्रवृत्ति का मुख्य साधक अंग है मस्तिष्क, जहां से सारी क्रियाओं
५२ चेतना का ऊर्ध्वारोहण
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