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बोला-"लो, खच्चर बेच रहा हूं। एक रुपए में खच्चर और सौ रुपए में उस पर बैठी हुई बिल्ली। लेना हो तो लो। किंतु दोनों साथ में बिकेंगे। खच्चर के साथ बिल्ली भी लेनी होगी। दोनों साथ में मिलेंगे, अलग-अलग नहीं मिलेंगे।"
ठीक इसी प्रकार यह सौ रुपए की वृत्तियां और एक रुपए के मन का खच्चर है। दोनों साथ में हैं। लेना हो तो साथ में लो। अलग-अलग नहीं मिलेंगे। वृत्ति अलग नहीं मिलेगी और मन अलग नहीं मिलेगा। दोनों साथ मिलगे। इस प्रकार मन का काम काफी लम्बा-चौड़ा है। इसीलिए मन सक्रिय बनता है। मन का कोई दोष नहीं है । सक्रियता इसीलिए है कि संसार के सारे क्रियातंत्र का संचालन करना उसका अपना सहज नैसर्गिक काम है।
प्रश्न है कि बाह्य संगों को हम क्यों छोड़ें? यानी वस्त्र, मकान, दूसरी-दूसरी चीजें क्यों छोड़ें ? छोड़ने की क्या ज़रूरत है ? तब वहां बताया गया है कि संग नहीं छोड़ेंगे तो कषाय को उत्तेजना मिलेगी। कषाय उत्तेजित होगा तो अध्यवसाय विकृत होगा। अध्यवसाय विकृत होंगे तो लेश्या अशुद्ध होगी। लेश्या अशुद्ध होगी तो अशुद्ध मन का निर्माण होगा। अशुद्ध मन का निर्माण होगा तो चित्त विकृत होगा।
प्रश्न-क्या सूक्ष्म-शरीर और 'ओरा' एक नहीं है ?
उत्तर-ओरा' और सूक्ष्म-शरीर दो हैं। तैजस और कर्म-ये दो सूक्ष्मशरीर हैं। ओरा (लेश्या या प्रभा-मंडल) तेजस-शरीर से निकलने वाली प्रकाशरश्मियां हैं । कर्म-शरीर भावात्मक शरीर है। आदमी मर जाता है और मरते समय जब तीव्र आकांक्षा उसके मन में रह जाती है, जैसे किसी ने अकस्मात आत्महत्या कर ली। मन में तीव्र भावना थी, पूरी नहीं हुई। दुर्घटना से म र गया। फिर कहते हैं कि वह भूत बन जाता है। देखता है, बोलता है और बारबार यह जो प्लेनचेट के द्वारा आत्मा का अवतरण करते हैं, आमंत्रण करते हैं, आत्मा को बुलाते हैं। कुछ बातें बताते हैं। कुछ बातें मिलती हैं, कुछ बातें नहीं मिलती हैं। यह सारा क्रम न आत्मा का है, न स्थूल-शरीर का । यह एस्ट्रल बॉडी का क्रम है । स्थूल-शरीर रह जाता है । आत्मा चली जाती है। किंतु उसके संस्कार रह जाते हैं।
प्रश्न-जैन आगमों में योगवहन शब्द आता है । क्या प्राचीनकाल में योग की कोई विशिष्ट पद्धति रही है या जो आजकल चलती है, वही रही है ?
उत्तर-आजकल योगवहन का अर्थ आगम अध्ययन के साथ जुड़ गया। जब सूत्र पढ़ें तो उसके साथ में इतने आयंबिल करने चाहिए। अमुक-अमुक तपस्या करनी चाहिए। यह योगवहन के अर्थ में रूढ़ हो गया किंतु यह बहुत पुरानी बात नहीं है। यह बाद की है। यह योगवहन की कल्पना, उत्तरकालीन कल्पना है । जब आगमों की व्यवस्था हुई, अंगों-उपांगों की जो व्यवस्था हुई, उस व्यवस्था के
चित्त का निर्माण : ५१
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