________________
बाह्य जगत् में सम्पर्क स्थापित करते हैं । वहां तक की सारी क्रिया का संचालन करता है न । मन है परिणमनशील । मन उत्पन्न होता है, नष्ट होता है उत्पन्न होता है, नष्ट होता है । एक क्षण में मन होता है और फिर नष्ट हो जाता है । मन से पहले मन नहीं है और मनन के बाद मन नहीं है । मन उत्पन्न होता रहता है और चित्त उस पर स्थायी नियंत्रण करने वाला है ।
जब हम ध्यान में बैठते हैं तब हम सोचते तो हैं कि इस बात पर मन टिकाएं, पर मन टिकता तो नहीं है । भीतर में कोई कहता है कि उस पर मन टिकाओ तो फिर मन ही ये दो काम कर रहा है क्या ? जैसे तर्कशास्त्र में आता है कि नट कितना भी कुशल हो, अपने कंधों पर नहीं चढ़ सकता । मन दो क्रियाएं कैसे कर सकता है ? वही तो चंचल है और वही निर्देश देता है कि स्थिर बनो - दोनों बातें कैसे कर सकता है ? किन्तु वास्तव में देखें तो चित्त और मन एक नहीं हैं । सक्रियता मन की है । मन चंचल होता है और उसका काम ही है चंचल होना । यह निर्देश मिलता है चित्त के द्वारा, बुद्धि के द्वारा या विवेक के द्वारा कि 'स्थिर करो'। हम स्थिर करते हैं किन्तु मन तो अपना काम करता जाता है । मन अपना काम करता रहेगा तो फिर वह स्थिर कैसे रहेगा ? वास्तव में सोचें तो मन स्थिर होता ही नहीं है । तो फिर क्या है ? इसका बहुत अच्छा उत्तर हमें एक बौद्ध साधक से मिलता है। उनसे पूछा गया कि मन कैसे स्थिर करें ? उन्होंने कहा - स्थिर क्या करोगे ? उत्पन्न ही मत करो। प्रतिष्ठा ही मत करो । उत्पन्न नहीं होना ही स्थिरता है । जो चीज़ चंचल है, जिसका स्वभाव ही चंचल है, जिसका अर्थ ही है सक्रियता, क्रिया करना, क्रियातंत्र का संचालन करना, वह स्थिर कैसे होगा ? इसका अर्थ है कि मन को उत्पन्न मत करो ।
हम मौन हो जाते हैं । अब कहें कि भाषा को हमने स्थिर कर दिया । भाषा को स्थिर क्या किया ? हमने भाषा को उत्पन्न ही नहीं किया । भाष्यमाण भाषा होती है । हम बोलते ही नहीं हैं तो भाषा कैसे होगी ?
मन का अनुत्पादन ही मन की स्थिरता है । मन परिणमनशील है, और चित्त है उसका एक स्थायी नियंत्रण करने वाला बौद्धिक चक्र । वृत्तियों का काम भी मन की चंचलता है । उसके ज़िम्मे बहुत बड़ा काम है । वृत्तियां जो उभरती हैं, उनका वहन करना भी मन का काम है । मन इतना बड़ा संदेशवाहक और इतना बड़ा भार ढोने वाला खच्चर है कि वह काफी भार ढोता है ।
एक व्यक्ति का खच्चर खो गया तो वह पीर के पास जाकर बोला- मेरा खच्चर मिल जाए तो मैं उसे एक रुपए में बेच दूंगा । मनौती की और संयोग से खच्चर मिल गया । अब सौ रुपए की चीज़ एक रुपए में कैसे बेचे ? बड़ी कठिनाई खड़ी हो गयी, परंतु मनोती की हुई थी, इसलिए करे क्या ? उसने सोचा क्या करूं ? एक बिल्ली लाया और उसे खच्चर की पीठ पर बैठा दिया। बाज़ार में जाकर
५० : चेतना का ऊर्ध्वारोहण
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org