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________________ दो अवस्थाओं के निर्माण की चर्चा मैंने की थी-एक चित्तातीत अवस्था मौर दूसरी चित्त-निर्माण की अवस्था । चित्त-निर्माण तो हमारा होता ही है। हमें यह चुनाव करना होता है कि हम किस प्रकार के चित्त का निर्माण करें। तीसरी बात यह आती है कि जो हमारा ध्येय है, उस ध्येय के अनुकूल सामग्री का चयन करें और उस प्रकार का चित्त हम बनायें, निर्मित करें। चौथी बात है-चित्त'नर्माण की प्रक्रिया। चित्त-निर्माण की प्रक्रिया क्या होगी? इसमें सबसे महत्त्वपूर्ण साधन है-ध्येय की कल्पना यानी ध्येय का चिन्तन । यदा ध्यानबलाद् ध्याता, शून्यीकृत्य स्वविग्रहम् । ध्येयस्वरूपाविष्टत्वात्, तादृक संपद्यते स्वयम् ॥ -ध्येय के स्वरूप में आविष्ट हो जाना, यह आवेश की प्रक्रिया है। आवेश आता है, क्रोध हमारे मन में उतरता है। दूसरी बात हमारे मन में उतर जाती है। आविष्ट होना-एक-दूसरे में घुस जाना। अपने शरीर को तो बना दिया शून्य और सामने ध्येय है, उसमें आविष्ट होना शुरू कर दिया। उसमें घुसना शुरू कर दिया। घुसते-घुसते इतने घुस गये कि ध्येय और ध्याता दोनों एक बन गये। यह गुण-संक्रमण का सिद्धांत है। योगी के देह में उस प्रकार का ध्यान करने से, गुणसंक्रमण हो जाता है यानी जो गुण ध्येय का है, वह उस में संक्रामित हो जाता है। महावीर का समत्व गुण है, और महावीर के ध्यान में हम आविष्ट हो गये तो महावीर का समत्व हमारे भीतर प्रकट होना शुरू हो जायेगा। यह है गुणसंक्रमण का सिद्धांत। __ जब इस प्रकार के चित्त का निर्माण कर लेते हैं तो विकृत मानस का निर्माण अपने आप स्थगित हो जाता है और इस प्रकार हम अपनी साधना की मंजिल तय कर लेते हैं और अपने चित्त की अधीनता हम स्वयं प्राप्त कर लेते हैं। जिस प्रकार के चित्त का निर्माण, जितने प्रकार के पर्यायों का निर्माण हमें जीने के लिए आवश्यक होता है, हमारी साधना के लिए आवश्यक होता है, उस प्रकार के पर्यायों का निर्माण कर उन पर्यायों में चलते-चलते हम पर्यायातीत स्थिति तक पहुंच जाते हैं। प्रश्न: समाधान प्रश्न-क्या चित्त और मन दोनों अलग-अलग होते हैं ? उत्तर-चेतना का वह पर्याय जो हमारी योग्यता के अनुरूप विकसित होता है, वह है चित्त और मन है उसके द्वारा निर्मित होने वाला क्रिया-संचालन के तंत्र का मुख्य उपकरण। उसमें विषय के सम्पर्क से लेकर स्मृति, प्रत्यभिज्ञा तक का पूरा एक चक्र आ जाता है। क्रिया संचालन का एक मुख्य तंत्र है जिसके द्वारा हम चित्त का निर्माण : ४६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003090
Book TitleChetna ka Urdhvarohana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1978
Total Pages214
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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