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________________ कम हो जायेगी और ऐसा अनुभव होगा कि शरीर को जितनी उष्मा चाहिए, उतनी उष्मा हमें प्राप्त हो रही है।। ठीक इसी प्रकार जब शीत-चित्त का निर्माण करना है तो उल्टा प्रयोग कीजिये यानी श्वास लिया चन्द्र स्वर से, कुंभक किया और सूर्य स्वर से छोड़ा। बाएं से लिया और दाएं से छोड़ा। इसी क्रम को बार-बार दोहराते जाइये । एकदो बार में कुछ नहीं होने वाला है। इसे कम-से-कम बीस-तीस, चालीस-पचास बार करें तब ठीक अनुभव होगा कि इस प्रकार के चित्त का निर्माण हो रहा है। उसे दोहराते जाइये। काफी ठंडक का अनुभव होने लग जायेगा। दूसरी एक प्रक्रिया और है, वह सर्दी में करने की नहीं है। शीतली प्राणायाम, शीतकारी प्राणायाम और भुजंगी प्राणायाम ---ये तीन प्राणायाम हमारे शीत-चित्त का निर्माण करते हैं। ___ मान लीजिये कि पेट बहुत गर्म है और ऐसा अनुभव हो कि जलन भी लग रही है। भुजंगी प्राणायाम से आपको तत्काल ठंडक महसूस होने लग जायेगी। भुजंगी प्राणायाम में पूरा मुंह खोलकर बहुत तेजी के साथ श्वास लेना होता है। उस समय इतना ठंडा लगेगा मानो कोई ठंडी चीज़ गले में डाली जा रही है। गर्मी तेज़ हो गयी, उस समय ठंडी चीज़ का स्मरण करें, जैसे बर्फ हिमालय आदिआदि । तत्काल ठंडी परिणति शुरू हो जायेगी। विशेषावश्यक भाष्य में एक बहुत बड़ी चर्चा चली है-जीवों के अनुग्रह और उपघात की। ये दोनों पुद्गलों के द्वारा होते हैं। वहां मन के प्रसंग में चर्चा है कि यदि मानसिक पुद्गल इष्ट गृहीत होते हैं तो जीव का अनुग्रह होता है और अगर अनिष्ट पुद्गल ग्रहण किये जाते हैं तो उपघात होता है। अगर आप चिन्ता बहुत करते हैं, शोक बहुत करते हैं, ईर्ष्या बहुत करते हैं, उस प्रकार के पुद्गलों को ग्रहण करेंगे तो आपके शरीर पर, आपके मन पर इतना बुरा असर होगा कि दोनों-शरीर और मन खराब होने लग जायेंगे। दोनों की परिणतियां खराब होने लग जायेंगी। यानी उपघात होने लग जायेगा। यदि आप प्रसन्नता, मैत्री आदि अच्छी बातों का चिन्तन करते हैं तो अनायास ऐसे इष्ट पुदगलों का ग्रहण होगा कि आपका मन अच्छा बनने लग जायेगा और चित्त स्वस्थ होने लग जायेगा। भोजन का अनुग्रह और उपघात होता है-अच्छा भोजन मिलता है तो शरीर स्वस्थ बनता है, शरीर नीरोग बनता है और अच्छा बनता है। खराब भोजन मिलता है तो शरीर विकृत होने लग जाता है। जब स्थल पुद्गल हमें इतना प्रभावित कर सकते हैं तो सूक्ष्म पुद्गल तो और अधिक प्रभावित कर सकते हैं । यह सारा-का-सारा अनुग्रह का सिद्धांत है। अनुग्रह करने वाली सामग्री का ग्रहण और उसके आधार पर चित्त का निर्माण । यह चित्तनिर्माण की प्रक्रिया है। ४८ : चेतना का ऊर्ध्वारोहण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003090
Book TitleChetna ka Urdhvarohana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1978
Total Pages214
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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