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बनना नहीं चाहता। अपने आपको कुछ बनाना चाहता है, उसे यह निर्माण करने का प्रयत्न करना होता है। उसकी कुछ प्रक्रियाएं मैं प्रस्तुत करना चाहता हूं। इसके लिए सबसे पहले हमें ध्येय का चुनाव करना होगा कि मैं क्या होना चाहता हूं? एक बीमार व्यक्ति स्वस्थ होना चाहता है। एक ध्येय का निर्माण हो गया यानी वह स्वस्थ-चित्त का निर्माण करे। एक व्यक्ति ब्रह्मचारी रहना चाहता है तो वह ब्रह्मचर्य-चित्त का निर्माण करे। एक व्यक्ति प्रसन्न रहना चाहता है तो वह प्रसन्न-चित्त का निर्माण करे। इस प्रकार जो हमारी अपेक्षा है, वह ध्येय हमने पहले चुन लिया। हमारा ध्येय निश्चित हो गया। अब ध्येय तक पहुंचना है। कैसे पहुंचे ? उसके लिए हमें एक कल्पना का चित्र बनाना है। चाहे कोई व्यक्ति हो, जिस ध्येय तक पहुंचना है, उसका चित्र बनाना होगा। ब्रह्मचर्य की स्थिति में पहुंचना है तो स्थूलिभद्र का चित्र बनाना होगा। ऐसे व्यक्ति का चित्र बना लेना है जिस व्यक्ति में हमारा ध्येय पूर्णतः साकार हो। चाहे हमारा काल्पनिक चित्र हो। वह चित्र हमने लिया और ध्यान की मुद्रा में बैठ गये। शरीर को बिलकुल शून्य कर दिया। फिर उस चित्त को, उस कल्पना को हमने साकार किया। कल्पना को साकार कर हमने प्राणायाम शुरू कर दिया। भावी चित्त की निर्मलता के लिए, उसके साथ सम्बन्ध स्थापित करने के लिए, रेचक और बाह्य कुंभक-ये दो बहुत महत्त्वपूर्ण कड़ियां हैं। हमने प्राण का रेचन कर कुंभक किया। बाह्य कंभक-जितनी देर हम प्राण को बाहर रखते हैं उतनी ही चित्त की निर्मलता प्राप्त होती है । और चित्त को निर्मलता प्राप्त होती है तो उसका प्रतिबिम्ब जल्द पड़ जाता है। चित्त की निर्मलता के लिए यह रेचन और बाह्य-कुंभक बहुत सुन्दर प्रक्रिया है। प्राण जितना बाहर रहेगा, उससे नाड़ी-शुद्धि होगी और चित्त की शद्धि होगी। पतंजलि ने भी इसका अच्छा प्रतिपादन किया है।
- प्राण के विच्छर्दन और धारणा से चित्त की प्रसन्नता होती है। यह विच्छर्दन है रेचक और धारणा है बाह्य-कुंभक । ये दोनों स्थितियां हमारी प्राप्त होंगी। जैसे स्थूलिभद्र का चित्र हमने सामने लिया। हमारी कल्पना हो तो अब उसे दोहराने की ज़रूरत नहीं। वह मूर्त अर्थात् ब्रह्मचर्य मय हमारे सामने है। रेचक करते हैं और उसके बाद कुंभक करते हैं और फिर एक बार उसको देखते हैं। फिर दूसरी बार हमने रेचक किया, कुंभक किया और फिर उसकी ओर ध्यान केन्द्रित किया। इस सिलसिले को हम दो बार, चार बार, दस बार और पचास बार दोहराते जायें। दो-चार दिनों में ऐसा अनुभव होगा कि उसके साथ तादात्म्य स्थापित हो रहा है । यह है हमारा तन्मूर्तियोग । तन्मय बन जाना। इस स्थिति में एवंभूतनय की अवस्था प्राप्त हो जाती है।
रेचक और बाह्य कुंभक बार-बार दोहराते जाइये, उसी प्रकार चित्त का निर्माण होता चला जायेगा। चित्त का निर्माण होता है, पर्याय का निर्माण होता
४६ : चेतना का ऊर्ध्वारोहण
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