________________
योग-दर्शन में महर्षि पंतजलि ने भी कहा है-मन की उत्पत्ति इन तीन गुणों से होती है। शुक्ल, कृष्ण और रक्त-ये तीन मन की प्रकृतियां हैं। जैन-दर्शन में लेश्याएं छह मानी गयी हैं। किन्तु वास्तव में कृष्ण, नील और कापोत-ये तीनों कृष्ण के अन्तर्गत ही चली जाती हैं और तेजस् को लाल के रूप में ले सकते हैं। शुक्ल लेश्या का वर्ण शुक्ल है। ___ शरीर जीव से उत्पन्न होता है, वीर्य शरीर से उत्पन्न होता है और योग वीर्य से उत्पन्न होता है। लेश्या से उत्पन्न होता है-मन का योग। वास्तव में यह लेश्या शक्ति का बहुत बड़ा केन्द्र है। मूलाराधना में इसकी बहुत लम्बी चर्चा है। अध्यवसाय शुद्ध होता है तब लेश्या शुद्ध होती है। जब बाहर की लेश्या शुद्ध होती है तब भीतर की लेश्या भी शुद्ध होती है। यह पूरा का पूरा वर्तुल है। हम अध्यवसाय से चलें और फिर चित्त तक पहुंच जाएं। एक के बाद एक की शुद्धि का क्रम आता है। वास्तव में यह लेश्या, प्रभा, प्रभामंडल (ओरा) जो है, वह हमारे मन का निर्माण करती है। मन उससे निर्मित होता है। क्योंकि मन तो परिणामी है । मन स्थायी तत्त्व नहीं है । मन परिणामी है, परिणमनशील है। एक पर्याय है। कषाय-आत्मा से कषाय-मन उत्पन्न हुआ। निमित्त द्वारा कषाय-मन समाप्त हो गया। दूसरे क्षण कोई अनुकूल वातावरण आया, हर्ष-मन का निर्माण हो गया। तीसरे क्षण फिर कोई स्थिति आयी, शोक-मन निर्मित हो गया । अगले क्षण कोई ऐसा निमित्त मिला कि भय-मन निर्मित हो गया। एक दिन में हजारोंहज़ारों मनों का हम निर्माण करते हैं। यानी जितनी हमारी अनुभूतियां हैं, जितने हमारे पर्याय हैं, उतने ही मनों का निर्माण होता है। एक मन का निर्माण होता है और उसी अवस्था का हम उस समय अनुभव करते हैं। ___मैं समझता हूं कि यहां दो अवस्थाएं अब स्पष्ट हो गयी होंगी-एक चित्तातीत अवस्था और एक चित्त-निर्माण की अवस्था। हमारे चित्त का निर्माण होता रहता है और हम हजारों-हजारों अवस्थाओं से गुजरते रहते हैं। एक दिन में भी न जाने कितनी अवस्थाएं आ जाती हैं। क्योंकि पर्याय का परिवर्तन होता रहता है और वैसे ही चित्त का निर्माण होता रहता है। अब हमारे सामने प्रश्न यह है कि यह पर्याय का जो वर्तुल चल रहा है, वैसे ही चलने दें या चित्त के निर्माण को हम अपने अधीन कर लें ?हम चाहें वैसे चित्त का निर्माण कर लें? दशवकालिक में एक महत्त्वपूर्ण शब्द आया है-होउकामेणं.. जो होना चाहता है। कुछ होना चाहता है। और कुछ होना हमारे लिए जरूरी है। क्योंकि जब तक चित्तातीत अवस्था निरंतर नहीं सध जाती तब तक कुछ न कुछ होना तो पड़ता ही है। अब हमें इसमें चनाव करना है कि हम क्या हों ? भगवान् महावीर ने चुनाव किया है। जितने भी साधक हुए हैं, उन्होंने चुनाव किया है कि हमें क्या होना है ? क्योंकि बिना चनाव किये कोई बन नहीं सकता। जो भी साधक होता है, वह चुनाव करता है
४४ : चेतना का ऊर्ध्वारोहण
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org