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निर्माण की अवस्था जो चित्त-पर्याय की अवस्था है। शुद्ध आत्म-द्रव्य की अवस्था है, वह चित्तातीत अवस्था है और पर्याय की अवस्था जिसे थोकड़ों' की भाषा में कहते हैं 'अनेरी' (अन्य) आत्मा की अवस्था, वह है चित्त-पर्याय की अवस्था, चित्त-निर्माण की अवस्था । चित्त और मन का एक क्रम चलता है। साधारणतः हम समझते हैं कि चित्त और मन एक हैं, किन्तु वस्तुतः वे एक नहीं हैं। अनुयोगद्वार सूत्र में तच्चित्त, तन्मना, तल्लेश्य और तद्-अध्यवसाय'-ऐसा एक क्रम चलता है। यह बहुत ही सुन्दर क्रम है। कई बार तो लगा कि ये पर्यायवाची शब्द हैं। किन्तु ये पर्यायवाची नहीं, उत्तरोत्तर अवस्थाओं के सूचक हैं। अध्यवसाय हमारी चेतना की सूक्ष्म परिणति है, जिसे मनोविज्ञान की भाषा में कहते हैंअवचेतन मन । यह जो अवचेतन मन की स्थिति है, वह अध्यवसाय है। हमारा अध्यवसाय प्रभावित करता है लेश्या को और लेश्या के द्वारा मन का निर्माण होता है और उस पर चित्त-नियंत्रण स्थापित करता है। चित्त बुद्धि है, वह परिणमनशील नहीं है, स्थायी होता है। मन परिणमनशील है। मन उत्पन्न होता है लेश्या के द्वारा । जैसे सांख्यदर्शन और योग-दर्शन ने माना है कि सत्व, रज और तम-ये तीन गुण हैं और यह प्रकृति त्रिगुणात्मिका है । इस प्रकृति से मन उत्पन्न होता है। चित्त उत्पन्न होता है। जैन दर्शन में जो लेश्या है, उससे मन उत्पन्न होता है। मन की जो सारी क्रिया है, मन का जो सारा तंत्र है, वह भौतिक तंत्र है। उसमें अपने आप में चेतना नहीं है। चेतना चित्त से संक्रान्त होती है। मन, इन्द्रिय, स्मति, प्रत्यभिज्ञा–यह सारा का सारा तंत्र है, अपने आपमें अचेतन तंत्र है। चेतना उसमें संक्रान्त होती है चित्त के द्वारा । यह परिणमनशील है । लेश्या के द्वारा मन उत्पन्न होता रहता है। जिस प्रकार का अध्यवसाय होता है, उस प्रकार की बाहरी लेश्या पैदा हो जाती है । लेश्या तो रहती ही है । उसके वर्ण में परिवर्तन आ जाता है। आज की योग की भाषा में, मनोविज्ञान की भाषा में उसे 'ओरा' (Auro) कहते हैं। हर मनुष्य के शरीर के बाहर 'ओरा' होता है, प्रभामंडल होता है। वह हर व्यक्ति के आसपास में होता है। 'ओरा' पूर्ण विकसित होता है तो छह फुट में चारों ओर फैल जाता है। उस 'ओरा' के आधार पर यह निर्णय किया जाता है कि व्यक्ति कैसा है ? स्वभाव कैसा है ? इसका मनोभाव कैसा है ? स्वस्थ है या बीमार है ? आदि-आदि।
भारतीय योग में ज्योति पर ध्यान करने की बात आती है और ध्यान करने वाले लोग कहने लग जाते हैं कि हमें ज्योति-सी दिखाई देती है। वह ज्योति क्या है ? वह 'ओरा' ही है। ज्योति पर जब ध्यान केन्द्रित करते हैं तब हम 'ओरा' के साथ सम्पर्क स्थापित करते हैं । अपने प्रभामंडल के साथ सम्पर्क स्थापित करते हैं
और सबसे पहले यह तेजस्, जो कि अपने तेजोलेश्या से शुरू होता है और बाद में तेजस 'ओरा' ही सबसे पहले हमारे सामने व्यक्त होता है।
चित्त का निर्माण : ४३
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