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है कि शरीर के अणु-अणु में चेतना व्याप्त है। चेतना के बिना काया की प्रवृत्ति नहीं होती और काया के बिना चेतना की अभिव्यक्ति नहीं होती। अभिव्यक्ति का सबसे बड़ा और पहला साधन है शरीर। इस निकटता के कारण, इस तादात्म्य जैसी स्थिति के कारण शरीर को चेतन भी बतलाया है। जहां चेतना का प्रवेश है, अणु-अणु में चेतना व्याप्त है तो जो निर्देश हम काया को देते हैं, वह काया को नहीं, हमारी चेतना को निर्देश प्राप्त होता है और चैतन्यमय अणु-अणु जो हैं, वे हमारे निर्देश को स्वीकार करते हैं, मान लेते हैं और हम जिस ओर ले जाना चाहते हैं, उस ओर जाने को तैयार हो जाते हैं। यदि हम निर्देश की बात को ठीक समझे और ध्यान करने से पहले अपने शरीर को ठीक से निर्देश दें और देने का अभ्यास करें तो काया में अद्भुत रूप से स्थिरता आने लगेगी। उस स्थिति में मन और वाणी एकदम शांत हो जाएंगे। मन की स्थिरता के लिए काया की स्थिरता ज़रूरी है, वैसे ही काया की स्थिरता को समझना भी ज़रूरी है और काया की स्थिरता को ठीक से साधना भी ज़रूरी है। अगर यह ठीक से सध जाये तो फिर यह शिकायत नहीं हो सकती कि काया के स्थिर होने पर भी मन चंचल रहता है। काया के स्थिर होने पर मन स्थिर हो जाता है। भजन, कीर्तन, जप आदि में मन स्थिर नहीं होता, एक दिशागामी हो जाता है। दिशागामी होना एक अलग बात है और स्थिर होना एक अलग बात है। इसलिए दोनों विषय में हमारी यह भ्रांति नहीं होनी चाहिए। हमारी व्याप्ति के विपरीत व्याप्ति नहीं होनी चाहिए। वह ऐसी होगी कि जहां काया की स्थिरता है, वहां मन की स्थिरता है और जहां काया की चंचलता है, वहां मन की स्थिरता नहीं है।
प्रश्न-अहंकार और ममकार का सीधा सम्बन्ध मन से है या शरीर से ? और मन से है तो शरीर के शिथिलीकरण से क्या लाभ है ?
उत्तर-शरीर की प्रवृत्ति और उसके साथ-साथ श्वास की संस्कार पर जो चोट लगती है उससे स्मृति जाग उठती है और उस स्मति के जागते ही अहंकार और ममकार प्रबुद्ध होकर मन की धारा में बहने लग जाते हैं। हमें लगता है कि मन में अहंकार जाग गया, ममकार जाग गया किन्तु यह तो अभिव्यक्ति हुई। यह तो उसकी धारा में उनका बहना हुआ। किन्तु वे मन से पैदा नहीं हुए हैं, मन से आये नहीं हैं। यदि नदी की धारा में कोई काठ बहकर आता है तो इसे हम नहीं कह सकेंगे कि नदी की धारा में काठ ने जन्म लिया। उसका जन्मदाता दूसरा है। उसकी खोज हमें दूसरी दिशा में करनी होगी। अहंकार और ममकार का जो जन्म है, वह मन में नहीं हुआ है, मन में प्रवाहित हो रहा है। इस बात को हम ठीक तरह से समझ लें तो यह समझने में कोई कठिनाई नहीं होगी कि शरीर का शिथिलीकरण करने से वृत्तियों पर, संस्कारों पर या स्मृतियों पर चोट नहीं होगी
४० : चेतना का ऊर्ध्वारोहण
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