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विद्युत् को पैदा नहीं करता, वह उसे प्रकट करता है। मन चंचलता को पैदा नहीं करता, वह उसे प्रकट करता है। चंचलता मन की नहीं है और मन में नहीं है। वह है स्मृति की और संस्कार की। स्मृति हमारे मस्तिष्क के कोष्ठों में संचित है। हमारे स्मृतिकोष उत्तेजित होते हैं, वृत्तियां जागृत होती हैं, उन्हें अभिव्यक्ति मन देता है, इसीलिए हम सारा दोष मन पर मढ़ देते हैं। किंतु वास्तव में चंचलता होने में मन का दोष क्या है ? चंचलता इसीलिए हो रही है कि हमारी काया की स्थिति ठीक नहीं है। यदि हम संस्कारों को अर्जित न करें, स्मृतियों को अजित न करें, और एक धारा की भांति जैसे कि वे हमारे भीतर आएं और बहकर दूसरी ओर चली जाएं तो मन चंचल नहीं होगा। शरीर के स्थिर होने पर मन चंचल होता है, उसे समझने में शायद हमारी भूल हो सकती है। शरीर की स्थिरता सधी या नहीं सधी, यह जानना भी कुछ सरल नहीं है। हम स्थिरता की मुद्रा में बैठ जाएं, यह एक बात है किंतु जब तक मन का शरीर से योग नहीं होता, शब्द और विकल्प का मन से वियोग नहीं होता, वियोजन नहीं होता, संयोजन बना रहता है, तब तक स्थिरता सधती नहीं है। शरीर की स्थिरता के लिए जरूरी है कि जैसे उसमें गति न हो, वैसे ही उसमें आसक्ति का वेग भी न हो। यदि आसक्ति का धागा खिचा हुआ रहता है, ममत्व की रस्सी से हम उसे खींचते रहते हैं तो शरीर की स्थिरता निष्पन्न नहीं होती, शरीर का विसर्जन सही अर्थ में फलित नहीं होता। हमें इस बात को समझना ज़रूरी है कि शरीर की अप्रकम्पता कैसे निष्पन्न हो ? उसकी निष्पत्ति के लिए शारीरिक अवयवों को निर्देश देना बहुत ज़रूरी है। आप सोचें कि शरीर के अवयवों को निर्देश देने से क्या होगा ? क्या वे हमारा निर्देश मानेंगे ? मनोविज्ञान के क्षेत्र में ऐसा हो रहा है । आज यह कोरी कल्पना की बात नहीं । प्रयोग-भूमि पर सारा उतर रहा है। हम जिस अवयव को निर्देश देते हैं, वह हमारा निर्देश मानने लग जाता है। कोष्ठबद्धता की स्थिति में जो लोग आदेश नहीं किंतु प्रेमपूर्वक अपनी आंतों को निर्देश देते हैं, उनके उत्सर्ग की क्रिया ठीक होने लग जाती है। दूसरे-दूसरे अवयवों में ऐसा घटित होता है। आप जानना चाहेंगे कि ऐसा क्यों होता है ? __इसका एक कारण है। भगवान् महावीर से पूछा गया-भन्ते ! हमारा मन सजीव है या निर्जीव ? चेतन है या अचेतन ? __ भगवान् ने कहा-मन जीव नहीं, अजीव है। मन चेतन नहीं, अचेतन है। वाणी के बारे में पूछा तो भगवान् ने वही कहा, वाणी अजीव है और अचेतन है। जब काया के बारे में पूछा तो भगवान् ने कहा-काया सजीव भी है और निर्जीव भी है; काया चेतन भी है और अचेतन भी है। काया चेतन कैसे ? वह पौद्गलिक है। पुद्गलों का, परमाणुओं का एक संघात है। फिर सजीव कैसे? चेतन कैसे ? किन्तु इसमें गहरा अर्थ है । काया का हमारी चेतना से इतना घनिष्ठ सम्बन्ध
शरीर-दर्शन : ३६
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