SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 50
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आसक्ति से । जब हम श्रम करते हैं, काम करते हैं, उसके बाद अशेष की अनुभूति होती है। कुछ भी करना शेष नहीं है, इसकी अनुभूति ही नहीं है तब मन हल्का हो जाता है। शरीर हल्का हो जाता है। और इस कल्पना के साथ-साथ समाप्त करते हैं कि बहुत बाकी है तो यह शेष की अनुभूति हमारे मस्तिष्क पर, हमारे मन पर इतना बोझा डाल देती है कि हमारी काम करने की क्षमता भी कम हो जाती है। यह अशेष की अनुभूति ममत्व का विसर्जन है, तनाव का विसर्जन है और शरीर की स्थिरता का बहुत बड़ा हेतु है । यह जो शेष की अनुभूति है, वह साराका-सारा बोझ हमारे पर डालती है। रावण ने मरते समय कहा था कि मेरे मन में तीन काम करने की बात शेष है। दुनिया का कौन-सा व्यक्ति ऐसा हुआ है, जिसने मरते समय शेष की अनुभूति न की हो। मरते समय यदि किसी व्यक्ति ने शेष की अनुभूति नहीं की या जीतेजी किसी ने शेष की अनुभूति नहीं की और हर पल अशेष की अनुभूति करता रहा, यानी मुझे कुछ भी करना शेष नहीं है, जो वर्तमान क्षण में प्राप्त है वह हो रहा है, अगले क्षण के लिए कुछ भी शेष नहीं है-यह अनुभूति यदि किसी व्यक्ति ने की है तो उस व्यक्ति ने की है, जिसने ममत्व को त्याग दिया, आसक्ति को त्याग दिया और शरीर के प्रति बेलगाव हो गया। इन सारे दृष्टिकोणों को ध्यान में रखकर यदि हम शरीर पर विचार करते हैं तो इस स्थिति पर पहुंचते हैं कि शरीर की क्रिया और अक्रिया पर हमारे मन की क्रिया और अक्रिया, मन की चंचलता और स्थिरता निर्भर है। इसलिए हम शरीर को गौणता नहीं दे सकते । शरीर के मूल्य को कम नहीं कर सकते । साधना के क्षेत्र में उसका मूल्य हमें आंकना है। जो व्यक्ति साधना के क्षेत्र में गति करना चाहता है, अग्रसर होना चाहता है और वह यदि शरीर का सही मूल्यांकन करना नहीं चाहता, तो वह साधना की प्रतिकूल दिशा में प्रयाण कर रहा है। प्रश्न : समाधान प्रश्न-आपने अभी बताया कि काया स्थिर होने पर मन स्थिर हो जाता है और काया चंचल होने पर मन चंचल हो जाता है। परंतु ध्यान में शरीर तो स्थिर रहता है, फिर भी मन चंचल रहता है। भजन, कीर्तन, जप आदि करते समय शरीर तो चंचल रहता है, फिर भी मन स्थिर हो जाता है। इस दृष्टि से यह संगत कैसे होगा? उत्तर-हमने मन को अकारण ही अपराधी बना रखा है। चंचलता के मामले में मन का उतना दोष नहीं है, उतना अपराध नहीं है जितना कि हमने मान रखा है। मन बेचारा वाहक है। वह तो अभिव्यक्ति का साधन है। हमारे सामने बल्ब है। विद्युत्धारा आती है और वह बल्ब उसे प्रकट कर देता है। बल्ब ३८ : चेतना का ऊर्ध्वारोहण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003090
Book TitleChetna ka Urdhvarohana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1978
Total Pages214
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy