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________________ नहीं करनी चाहिए कि शरीर की चंचलता में हमारा श्वास, हमारी वाणी और हमारा मन शान्त और स्थिर हो जाएगा। बौद्धों ने शरीर की स्थिरता के लिए 'कायविपस्यना' का एक मार्ग प्रस्तुत किया है। क्योंकि जब तक काया के प्रति, शरीर के प्रति हमारा ममत्व और हमारी आसक्ति बनी रहेगी, तब तक स्थिरता नहीं आ सकती। काया को स्थिर, शांत तो बनाना चाहते हैं किंतु आसक्ति और ममत्व के रहते हुए, वह स्थिर कैसे होगी ? हो नहीं सकती। उन्होंने एक पद्धति प्रस्तुत की। काया को देखो, काया का दर्शन करो। वे अपने साधकों को मुर्दो के पास ले जाते और उन्हें दिखाते। देखो, यह मांस है, यह शोणित है, यह मज्जा है। जैसे डॉक्टर अपने विद्यार्थी को सारी चीजें एक-एक कर समझाता और सिखाता है, वैसे ही वे अपने नये साधकों को सारी चीजें बताते और समझाते । और फिर उनसे पूछा जाता, इस बात का अनुभव कराया जाता, कि कहो, इस शरीर में सार कहां है ? और सार क्या है ? इस प्रकार शरीर-दर्शन के द्वारा शरीर के प्रति अनासक्ति आ जाती। जैन साधक अशौच भावना के द्वारा शरीर के प्रति अनासक्त रहने का अभ्यास कराते थे । महाराज श्रेणिक और महारानी धारिणी ने मेघकुमार से कहा-तुम प्रवजित नहीं हो सकते । मेधकुमार ने उत्तर दिया-क्या मैं इस शरीर के आधार पर यहां बना रहूं? मेरे शरीर की स्थिति क्या है ? यह पित्त का आस्रव है, वमन का आस्रव है, शुक्र का आस्रव है, श्लेष्म का आस्रव है, दुनिया भर में जितने अशुद्ध पदार्थ होते हैं, उनका आस्रव है । एक दिन नष्ट हो जाने वाला है। कुछ दिन पहले या कुछ दिन पीछे अवश्य ही चला जाने वाला है। क्या इस शरीर के आधार पर मैं अपनी शाश्वत की साधना को ठकरा दं? जिस व्यक्ति को शरीर की वास्तविकता का बोध हो जाता है, वह उसमें आसक्त नहीं होता। वह उस मार्ग में नहीं आता जो तनाव पैदा करता है, जो कठिनाइयां पैदा करता है और जो चंचलता को उत्पन्न करता है। किंतु शरीर को उस ओर जाने का साधन बना देता है जो शरीर की आसक्ति को विसजित करने का मार्ग है । और जैसे ही शरीर की आसक्ति और उसका ममत्व विसर्जित हो जाता है, शरीर स्वयं विसर्जित हो जाता है। वह शरीर विजित हो जाता है जो हमारी मानसिक स्थिरता में और मानसिक स्थिरता की दिशा में बाधक बनता है। शरीर रहता है । वह बेचारा क्या बिगाड़ता है। शरीर रहने में कोई कठिनाई नहीं है। हमें शरीर को छोड़ना इस अर्थ में नहीं है कि वह मर जाये। किंतु शरीर को छोड़ना इस अर्थ में है कि वह हमारी चंचलता को समाप्त कर दे। चंचलता की ओर हमें न ले जाये। आसक्ति जैसे ही छूटी, वैसे ही उस शरीर की मृत्यु हो गई जो शरीर हमें चंचल बना रहा था। तनाव कल्पना से पैदा होता है और कल्पना पैदा होती है ममत्व से या शरीर-दर्शन : ३७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003090
Book TitleChetna ka Urdhvarohana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1978
Total Pages214
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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