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________________ पानी भीतर आ गया है, उसे उलीचकर फेंक देता है। नौका तैरने लग जाती है। यह शरीर नौका है। यह डूबने भी लगता है और तैरने भी लगता है। जब इसके सारे छिद्र खल जाते हैं, आस्रव के मुख चौड़े हो जाते हैं, तो बाहर से इतना आता है, इतना आता है कि वह डूबने लग जाता है। यह डूबना नौका का डूबना नहीं है। यह डूबना उन आस्रवों और छिद्रों का डूबना है। और वे साथ-साथ नौका को भी डुबो देते हैं। इन शरीर के छिद्रों को ढंकना, आस्रवों को अनास्रव करना, छेदों को बन्द करना, यह हमारी साधना की प्रक्रिया है। छेद वाली नौका डूबती है और बिना छेद की नौका तैर जाती है। छिद्र वाला शरीर, बाहर से सब कुछ लेने वाला शरीर डूबता है और बाहर से संवरण करने वाला निश्छिद्र शरीर तर जाता है। जब शरीर की क्रिया सूक्ष्म और स्थिर होती है, उस समय ध्यान की स्थिति निष्पन्न होती है। मन स्थिर होता है, शान्त होता है, तब तीव्र ध्यान होता है। शरीर के स्थिर होने से ऊर्जा और उष्मा बढ़ जाती है, ध्यान की शक्ति बहुत बढ़ जाती है और अजित संस्कारों को नष्ट करने की अद्भुत क्षमता उत्पन्न हो जाती है। मण्डितपुत्र के प्रश्न के उत्तर में भगवान् ने बताया, 'देखो, आग जल रही है और उस आग में कोई आदमी पूला डाल रहा है। क्या होगा?' 'भंते ! जल जाएगा।' 'गर्म तवा है। कोई आदमी उस पर जल-बिन्दु डालता है, उनका क्या होगा?' भंते ! सूख जाएंगे।' अग्नि घास के पूले को जला डालती है और गर्म तवा जल-बिन्दुओं को सोख लेता है । इस अप्रकम्प-अवस्था में, शरीर की स्थिर अवस्था में, छिद्रों को रोक देने की अवस्था में, शरीर में वह स्थिति उत्पन्न हो जाती है कि वह संस्कारों को जला डालता है। यह सब शरीर की स्थिरता होने पर होता है। शरीर की स्थिरता के बिना ऐसा हो नहीं सकता। इसीलिए सबसे पहले शरीर की स्थिरता पर ध्यान केन्द्रित करना आवश्यक है। क्योंकि जो मूल है, अगर उस पर हमारा ध्यान केन्द्रित नहीं होगा तो ऊपर की चीजों पर ध्यान केन्द्रित करने से क्या लाभ होगा? एक संन्यासी जा रहा था। जंगल में एक बेल को देखा। कभी देखा नहीं था पहले । पत्ता तोड़ा, खाया तो कड़वा लगा। फूल को चखा तो कड़वा लगा। फल खाया तो कड़वा । उसने सोचा यह क्या ? सब कड़वा ही कड़वा। फिर मूल को उखाड़ा और उसे चखा तो वह भी कड़वा । तब बोला-अरे ! पत्ते का क्या दोष ? फूल और फल का क्या दोष ? जब मूल ही कड़वा है तब पत्ते, फूल और फल कैसे कड़वे नहीं होंगे ? जब हमारा मूल ही कड़वा है, शरीर ही कड़वा है, तो उस पर मधुर फल कहां से लगेंगे ? शरीर मूल है। मन और वाणी उसके पत्ते, फल और फूल हैं। जब शरीर की कड़वाहट नहीं मिटी है तो उनकी कड़वाहट कैसे मिटेगी? शरीर यदि चंचल है तो वे स्थिर कैसे होंगे? यह कल्पना भी हमें ३६ : चेतना का अर्धारोहण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003090
Book TitleChetna ka Urdhvarohana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1978
Total Pages214
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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