SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 46
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दिखायी देती है। यह एक बहुत बड़ा सूत्र है। परं को देखता हूं तो मुझे आत्मा दिखायी देती है, सिर को देखता हूं तो मुझे आत्मा दिखायी देती है, कहीं भी देखता हूं, मुझे आत्मा दिखायी देती है। यह यत्र-तत्र आत्मा का दर्शन करना, जहां कहीं भी आत्मा को देखना और शरीर के अणु-अणु में आत्मा को देखना, यह आत्मदर्शन का दृष्टिकोण सचमुच ऊर्वारोहण का दृष्टिकोण है। जिस व्यक्ति में यह बात प्राप्त हो जाती है कि वह हर जगह आत्मा को देखने लग जाता है, वही आदमी सम्यकद्रष्टा बन जाता है। उसे भेद-ज्ञान प्राप्त हो जाता है और विवेक की साधना जागृत हो जाती है । यह है विवेक की साधना । प्रश्न था कि विवेक प्रतिमा क्या है ? यह है विवेक की साधना। शरीर के अणु-अणु में आत्मा का दर्शन करना-यह है विवेक प्रतिमा। जो दिखायी दे रहा है, उसमें आप गहराई से देखें तो ऐसा लगेगा कि कुछ स्पन्दन-सा हो रहा है। अन्दर से ज्योति का-सा आभास हो रहा है। यह हमारे देखने का अर्थ है, यह हमारी देखने की क्रिया है। अगर हम ठीक से देखने का प्रयत्न करें तो शरीर के भीतर कुछ और ही दिखायी देगा। अगर यह बात ठीक से हमारी समझ में आ जाये तो शरीर के भीतर की सारी क्रियाएं हमें ज्ञात हो जाएंगी। ___ यह आत्मदर्शन शब्द हमें साधारण-सा लगता है। किन्तु यह असाधारण है। यह रूढ़ हो गया, इसलिए इसका मूल्य हम नहीं आंक रहे हैं । किन्तु वास्तव में इस शब्द के पीछे कितनी भावनाएं हैं, गहरी भावनाएं निहित हैं, इसका उद्घाटन करने पर ही ज्ञात हो सकता है। भगवान् महावीर ने कहा, "आत्मा को आत्मा से जानो। आत्मा को आत्मा से देखो।' ये दो सूचनाएं बहुत ही महत्त्वपूर्ण हैं। हम आत्मा को आत्मा से नहीं जानते । हम जान रहे हैं दूसरों के शब्दों के आधार पर । हम आत्मा को आत्मा से नहीं देख रहे हैं। देख रहे हैं दूसरों के इंगितों के आधार पर। यदि वास्तव में आत्मा को आत्मा से जाना जाए, अपने अनुभव से जाना जाए और ध्यान की गहराइयों में पैठकर जाना जाए तो आत्मा का वह ज्ञान होता है जो हजारों शास्त्रों के द्वारा नहीं हो सकता। यदि हम आत्मा को आत्मा के द्वारा देखें, आत्मा की चेतना की गहराई में पैठकर देखें तो आत्मा का वह दर्शन होगा जो दूसरों के इंगितों पर नहीं हो सकता। आत्मदर्शन शाब्दिक दर्शन नहीं है । वह चेतना के उन स्तरों का दर्शन है जो हमारी इन्द्रियों और मन से अतीत हैं। हम देखते हैं शरीर को और शरीर की क्रिया को। आत्मा का दर्शन हमें सहज सुलभ नहीं है। हम देखते हैं संस्कारों को। जितनी धारणाएं और संस्कार निर्मित हैं, उन्हीं को देखते हैं और उन्हीं के द्वारा देखते हैं। इन्द्रियों के द्वारा देखते हैं और मन के द्वारा भी देखने का प्रयत्न करते हैं। किन्तु संस्कार, इन्द्रियां और मन-ये सब-के-सब उस दर्शन में बाधक बनते ३४ : चेतना का ऊर्वारोहण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003090
Book TitleChetna ka Urdhvarohana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1978
Total Pages214
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy