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________________ हुआ है उसे विभक्त करते चले जाना। यही हमारी सारी साधना पद्धति का, आदि अन्तत, महत्वपूर्ण अंग है। विवेक से चलना है और विवेक तक पहुंचना है । शरीर, मन, भाषा, श्वास, सूक्ष्म शरीर और संस्कार, इन सबका विवेक करना है, इन सबको छोड़ देना है। विवेक में छोड़ने की इतनी बातें आती हैं । जो हमारे स्थूल व्यक्तित्व का निर्माण करती हैं, उन सबको छोड़ देना है । यह है हमारे विवेक की बात । अब प्रश्न होता है कि विवेक कैसे करें ? विवेक का पहला बिन्दु होता है - सम्यग् दर्शन या अन्तदृष्टि का निर्माण । अन्तर्दष्टि के निर्माण का नाम है विवेक । इससे हमारी यह दृष्टि सुदृढ़ हो जाती है कि शरीर हमारा अस्तित्व नहीं है । जो शरीर है, वह हम नहीं है । शरीर हमारे अस्तित्व से भिन्न वस्तु है । शरीर और अस्तित्व की भिन्नता का जो बोध होता है, वह सम्यग् दर्शन है । अब प्रश्न होता है कि विवेक की साधना कैसे हो ? श्वास की साधना की मैंने जो चर्चा की, वह विवेक की साधना का पहला बिन्दु है । जो व्यक्ति श्वास की साधना करने लग जाता है, वह श्वास की साधना करते-करते उस स्थिति में पहुंच जाता है कि शरीर अलग पड़ा है और मैं कहीं अलग पड़ा हूं। आप श्वास को होंठ पर, नाक के नीचे देखें और मन को केन्द्रित करें। आधा घंटा, एक घंटा, दो घंटा, समय लगाते चलिए एक साथ में, और कुछ भी नहीं करना है, जप-ध्यान आदि भी नहीं करना है, माला नहीं फेरनी है, केवल श्वास पर मन को केन्द्रित करना है । आपको ऐसा लगेगा कि कोई चीज़ अलग हो रही है और मैं अलग हो रहा हूं । लम्बे समय के अनुभव के बाद यह बात स्पष्ट हो जाती है । हमारी आत्मा और हमारा स्थूल व्यक्तित्व- इन दोनों को जोड़ने वाला है श्वास । मन चला जाता है, वाणी चली जाती है, स्थूल शरीर चला जाता है, फिर क्या रहता है ? श्वास | योगी उच्च भूमिका में पहले मन का निरोध करता है, फिर वचन का और फिर काया का। तीनों निरुद्ध हो जाते हैं, फिर शेष क्या बचता है ? श्वास | आत्मा और शरीर, इनको जोड़नेवाली जो श्रृंखला है, दोनों का माध्यम है, वह है श्वास | श्वास को यदि हम ठीक तरह से समझ लेते हैं तो आत्मा को अलग और स्थूल शरीर को अलग, दोनों को अलग कर सकते हैं । कुछ लोग स्वाध्याय भी नहीं करते और कुछ भी नहीं करते। उनके लिए एक सीधा-सा आलम्बन है । वे केवल श्वास पर ध्यान टिकाएं । उन्हें कुछ ही दिनों में आभास होने लग जायेगा कि शरीर हल्का हो रहा है, आकाश में उड़ रहा है और कोई चीज़ उड़ती चली जा रही है । यह थी हमारी विवेक प्रतिमा जो कि पुरानी पद्धति थी। रात्रिकाल में बारह बजे के बाद विवेक प्रतिमा स्वीकार की जाती थी और सूर्योदय तक वह प्रतिमा चलती थी । उसमें कायोत्सर्ग के साथ विवेक की प्रतिमा स्वीकार होती थी और अपने अस्तित्व की और स्थूल शरीर की भिन्नता की स्पष्ट प्रतीति हो जाती थी । 1 Jain Education International अमूल्य का मूल्यांकन : २६ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003090
Book TitleChetna ka Urdhvarohana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1978
Total Pages214
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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