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________________ वर्णन किया गया है। जब व्यक्ति में शान्तरस का अवतरण होता है, सहज ही उसकी मुद्रा वैसी बन जाती है। उसके स्थायी, संचारी भावों को देखिए, उसकी मुद्रा का वैसा निर्माण हो जाता है या आप उन मुद्राओं में बैठकर देखिए । कोई आने वाला व्यक्ति देखेगा तो उसे लगेगा कि आप ठीक शान्तभाव का अनुशीलन कर रहे हैं। महावीर की मुद्रा को इतना बड़ा महत्त्व दिया गया । आचार्य हेमचन्द्र ने लिखा है वपुश्च पर्यकशयं श्लथं च, दृशौ च नासा नियते स्थिरे च । न शिक्षितेयं परतीर्थनाथैः, जिनेन्द्र ! मुद्रापि तवान्यदास्ताम् ।। भगवन् ! आपकी मुद्रा भी जब और लोगों ने नहीं सीखी तो और बातों को वे क्या सीख पायेंगे। आपका पर्यंक आसन में सोने वाला शरीर, शिथिल शरीर और नासाग्र पर टिकी हुई स्थिर आंखें, यह मुद्रा भी जब दूसरों को नहीं आयी तो आपकी और क्या बात आयेगी? मुद्रा को इतना महत्त्व क्यों दिया गया ? वास्तव में मुद्रा का बहुत बड़ा महत्त्व है। अगर हम ठीक से इसे समझ लेते हैं तो शायद आवेगों पर नियंत्रण पाने की क्षमता हमारी अद्भुत रूप से बढ़ जाती है और आवेशों से बचने की हमारे में ताकत पैदा हो जाती है। भगवान महावीर ने श्वास के संबंध में इतना बल दिया था क्या? यह एक प्रश्न हो सकता है और पिछली गोष्ठी में ऐसा पूछा भी गया था। प्रश्न बहुत महत्त्वपूर्ण है। आप देखें, जैनागमों में सारी साधना की पद्धति में शायद ऐसा नहीं मिलेगा कि 'श्वास पर नियंत्रण पाओ'। फिर इस पर इतना बल क्यों, यह प्रश्न होना स्वाभाविक है। किन्तु मैं आपसे कहना चाहता हूं कि हर बात को दो दिशाओं से समझा जाता है। एक कोई बात कही जाती है सीधी भाषा में और एक बात फलित होती है। महावीर ने यह तो सीधा नहीं कहा कि स्वर पर विजय पाओ या श्वास को साधना करो। किन्तु महावीर ने जो साधना की, वह साधना श्वास के नियमन की साधना है। मैंने उस पर विचार किया और मुझे जो अनुभव हुआ, ऐसा लगता है कि वह श्वास-नियमन की साधना है। आप यह जानना चाहें कि वह अनुभव कैसे हो सकता है तो अनुभव की बात कहना जरा कठिन है। मैंने पिछली गोष्ठी में भी कहा था कि महावीर को समझने के लिए महावीर की स्थिति में जाना पड़ता है। महावीर की स्थिति में जाने का अर्थ है- महावीर की मुद्रा में बैठना, महावीर की ध्यान की पद्धति से ध्यान करना और जो महावीर ने किया, वह कार्य करना। अगर हम ऐसा करते हैं, महावीर की स्थिति से तादात्म्य स्थापित करते हैं, महावीर की स्थिति से साक्षात् संबंध २२ : चेतना का ऊर्ध्वारोहण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003090
Book TitleChetna ka Urdhvarohana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1978
Total Pages214
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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