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सामान्य श्वास के बारे में आप लोग जानते हैं । अब आता है पूर्ण श्वास । यानी गहरी श्वास । जो श्वास हमारी छाती और पेट तक आ जाये, वह गहरा श्वास होता है | क्षुब्ध श्वास वह होता है, जैसे परिश्रम किया, कठोर श्रम किया,
सोलह से उन्नीस तक का अनुपात है, बढ़कर बीस, पचीस और तीस हो जाता है । सामने कोई भय की घटना उपस्थित हो गयी, उसका असर हुआ और श्वास की गति तीव्र हो जाती है। बुखार हो गया, श्वास बढ़ जाता है। ज्वर की अवस्था में हमेशा श्वास बढ़ता है और श्वास शान्त रहे तो ज्वर आ नहीं सकता । इसीलिए योग में एक प्रक्रिया है कि जब बुखार आने लगे, तब नाभि पर ध्यान करो। नाभि पर ध्यान करने से श्वास की मात्रा कम हो जाती है और श्वास कम होती है तो ज्वर बढ़ नहीं सकता । परिश्रम, भय, चिन्ता, उद्वेग और कुछ शारीरिक
मारियों की अवस्था में श्वास की मात्रा बढ़ जाती है। यह होता है क्षुब्ध श्वास । यह है शारीरिक कारण । दूसरा है मानसिक कारण । क्रोध, भय, लोभ, वासना, हिंसा या झूठ बोलना आदि-आदि कारणों से आवेग आते हैं, तब भी श्वास की मात्रा बढ़ जाती है ।
पहला प्रसंग था कि जीव हिंसा आदि से भारी होता है। जब हिंसा या झूठ की बात सोचते हैं तब सबसे पहले भारी होता है हमारा श्वास, फिर भारी होता है शरीर फिर भारी होता है मन और फिर भारी होता है संस्कार । यह एक क्रम है । इस क्रम का व्यतिक्रम कर कोई भारी नहीं हो सकता । श्वास भारी हुए बिना अगली कोई चीज़ भारी हो नहीं सकती । सबसे पहले श्वास क्षुब्ध और उत्तेजित होता है और उसके होने के बाद दूसरी चीजें क्षुब्ध और उत्तेजित होती हैं । यह परीक्षण हर कोई कर सकता है । अपनी नाड़ी को देख सकता है । अपनी धड़कन देख सकता है कि जब तक श्वास शान्त है, श्वास की गति ठीक है और नॉर्मल अर्थात जितना श्वास आना चाहिए उतना ही आ रहा है । तो मानना चाहिए कि मन में कोई आवेग नहीं है । आप परीक्षण करके देख लीजिए। आपके मन में कोई आवेग या दुर्घटना सामने आती है, चिन्ता की बात आती है, छाती की धड़कन बढ़ जाती है और नाड़ी की फड़कन भी बढ़ जाती है, उत्तेजित हो जाती है, यह हमारे मन का उस पर असर होता है । यह है हमारा क्षुब्ध श्वास | आज तक भी ऐसा कोई नहीं बता सकेगा कि मन में चिन्ता आयी और व्यक्ति का श्वास शान्त रहा हो। ऐसा हो नहीं सकता। यह सारा क्षुब्ध श्वास में होता है । इसीलिए मैंने कहा था कि मुद्रा और मानस के संबंध को जानना हमारे लिए बहुत ज़रूरी है।
योग के आचार्यों ने अलग-अलग मुद्राओं में बैठने का विधान किया है । हज़ारों-हजारों मुद्राओं का जो विधान हुआ वह अकारण ही नहीं हुआ है, उसके पीछे बहुत बड़ा अर्थ है । शायद आपने काव्यानुशासन पढ़ा हो। वहां नौ रसों का
अमूल्य का मूल्यांकन : २१
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