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निर्माण को या निर्मिति को देखना शायद हमें प्राप्त नहीं है।
प्रश्न-आत्मा शब्दातीत है और मन जड़ होता है तो विवेक का निर्णय कौन करेगा?
उत्तर-हम जानते हैं कि निर्णय करने में शब्दों की ज़रूरत नहीं होती और वास्तव में सही निर्णय वहां होता है, जहां शब्दों की हमें आवश्यकता नहीं होती। शब्दों की बहुत आवश्यकता होती भी नहीं है । हम स्वप्न देखते हैं । स्वप्न में क्या कोई शब्द होता है ? एक व्यक्ति को देखते हैं, वस्तु को देखते हैं। मैं खंभे को देख रहा हूं। इसे देखने में शब्द की कोई जरूरत नहीं है। शब्दों की ज़रूरत वहां होती है, जहां कि हमारे प्रत्यक्ष में कुछ नहीं होता। इसीलिए बौद्धों ने विकल्प को अप्रमाण माना है। उन्होंने माना कि 'निर्विकल्पं प्रत्यक्षं प्रमाणं'-जो निर्विकल्प प्रत्यक्ष है, वही प्रमाण है। जहां प्रत्यक्ष में शब्द का प्रवेश हो गया, वहां प्रमाण खंडित हो गया, यानी अप्रमाण हो गया, प्रत्यक्ष नहीं रहा । अनुमान भी प्रमाण नहीं है उसका । केवल औपचारिक प्रमाण मानते हैं। जो निर्विकल्प है, शब्दातीत है, वही वास्तव में प्रमाण होता है।
हमारे दर्शन में शब्द की कोई आवश्यकता नहीं होती। एक अतीन्द्रिय ज्ञानी जो देखता है, शब्द नहीं होता, केवल साक्षात् होता है। शब्दों का माध्यम तो हमारी दुर्बलता है। यह बैसाखी तो हमने इस लिए हाथ में ली, क्योंकि लंगड़ाते हुए चलते हैं। हमारी आंखों में वह ज्योति नहीं है, इसलिए चश्मा लगा लेते हैं। यह हमारी कोई शक्ति नहीं, केवल दुर्बलता और सापेक्षता है। वास्तव में शब्द की कोई जरूरत नहीं। निर्णय हम इसीलिए लेते हैं कि हमारे भीतर भी एक ज्योति झांक रही है। हमारा अस्तित्व इसी से प्रमाणित होता है । अगर हमारा अस्तित्व वास्तव में शब्द तक ही सीमित होता तो हमारी यह निर्णय लेने की शक्ति समाप्त हो जाती। हम भौतिक वातावरण में रहते हुए भी अस्तित्व की, आत्मा की, चेतना की बात करते हैं, यही इसका सबसे बड़ा प्रमाण है कि हमारी भौतिकता के तल में छिपी हुई कोई ऐसी प्रखर ज्योति है जो कि निर्णय ले रही है और वह निर्णय हमारे बाहर तक पहुंच रहा है । जैसे भीतर कमरे में बिजली जल रही है, दीपक जल रहा है और मकान में जो छिद्र है, जो द्वार है या खिड़कियां हैं, उनके द्वारा प्रकाश बाहर जाता है । छिद्र से प्रकाश बाहर झांकता है। चेतना पर आवरण हैं। चेतना का प्रकाश, छेदों को लांघकर, बाहर की ओर आता है। वह हमारा निर्णय होता है। और इसलिए हमें बाहर से भीतर और सेतु के उस पार जाने की प्रेरणा प्राप्त होती है।
प्रश्न-जागरण को साधना का फलित माने या साधना का आदि-बिन्दु ?
उत्तर-जागरण वास्तव में साधना का आदि-बिन्दु है। फलित भी इस भाषा में मान सकते हैं, जो दीप एक बार जल जाता है, वह कभी बुझता नहीं।
चेतना का जागरण : १३
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