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________________ छिपाने की बात, लूट लेने की बात, ठगने की बात आयेगी तभी किसी के साथ अमंत्री का भाव होगा। जहां छिपाने जैसा कुछ भी नहीं है, सरलता ही सरलता है, पारदर्शी स्फटिक-सा जीवन है, वहां शत्रुता हो ही नहीं सकती। माया का प्रतिपक्ष है ऋजुता। लोभ के आवेग को नष्ट करना है तो संतोष को विकसित करें, उसे पुष्ट करें। आवेगों को मिटाने के लिए प्रतिपक्ष के संस्कारों को पुष्ट करना है। जब तक प्रतिपक्ष का संस्कार पुष्ट नहीं होता, आवेगों का तनुभाव नहीं किया जा सकता, उन्हें पतला नहीं किया जा सकता, क्षीण नहीं किया जा सकता। जब तक आवेग क्षीण नहीं होते, उन्हें तोड़ा नहीं जा सकता। उन्हें इतना क्षीण कर देना होता है कि एक ही झटके में वे टूट जाएं। क्रोध, मान, माया और लोभ-ये चार आवेग हैं । इनकी प्रतिपक्षी भावनाओं को पुष्ट करने से ये आवेग शांत हो जाते हैं। उनका विपाक बंद हो जाता है। भय, काम-वासना, घृणा आदि आवेगों के लिए प्रतिपक्ष की भावना ज़रूरी है। साधना में प्रतिपक्ष भावना का बहुत बड़ा महत्त्व है। इसके बिना आवेगों से छुटकारा नहीं मिलता। हमारी अभय की भावना जितनी पुष्ट होगी, भय का आवेग क्षीण हो जाएगा। चेतना की भावना, चैतन्य का अनुसंधान जितना पुष्ट होगा, काम-वासना उतनी ही क्षीण हो जायेगी। एकत्व का विकास होगा तो घृणा अपने आप मिट जायेगी। हम प्रतिपक्ष को पुष्ट करें। यह हमारा कर्तृव्य है, पुरुषार्थ है, संकल है । जैसे कर्म के अनिष्ट विपाक में कुछ निमित्त होते हैं, वैसे ही कर्म के इष्ट विपाक में भी कुछ निमित्त होते हैं। किसी के ज्ञानावरण कर्म का विपाक है। वह चाहता है कि ज्ञानावरण का विपाक कम हो। इसके लिए भी कुछ साधन हैं। आचार्य मलयगिरि ने प्रज्ञापना की टीका में अनेक उपाय निर्दिष्ट किए हैं। ब्राह्मी आदि बूटियां हैं, जिनके सेवन से ज्ञान-विकास में सहायता मिलती है। ___ मन की एकाग्रता में भी कुछ पदार्थ सहयोगी होते हैं, कुछ निमित्त बनते हैं। आप ध्यान करने बैठते हैं। उस समय यदि आपके हाथ में पारे की गोली होती है तो आपको एकाग्र होने में सुगमता हो सकती है। ध्यान-काल लंबा हो सकता है। साधना की कुछेक प्रक्रियाओं में रुद्राक्ष का भी प्रयोग होता है। उसका भी एक अर्थ, प्रयोजन है। जैसे मन पदार्थ को प्रभावित करता है, वैसे ही पदार्थ भी मन को प्रभावित करता है। इष्ट और अनिष्ट-दोनों प्रकार के कर्म-विपाकों में पुद्गलों का योग रहता है। पौद्गलिक परिणतियां उन विपाकों को बढ़ा भी सकती हैं और कम भी कर सकती हैं। एक आदमी मदिरा पीता है। मदिरा मोह-कर्म के विपाक में निमित्त बनती है। मूर्छा आ जाती है । क्या ऐसा पदार्थ नहीं है, जिसके सेवन से हमारी जागृति आवेग-चिकित्सा : १७५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003090
Book TitleChetna ka Urdhvarohana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1978
Total Pages214
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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