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________________ नमि राजर्षि से कहा गया--आपका अंत:पुर जल रहा है। उसमें आग लग गयी है । लपटें आकाश को छू रही हैं । आपका प्रासाद जल रहा है। आपका नगर जल रहा है। नमि राजर्षि ने कहा-मैं सुख से जी रहा हूं, सुख से रह रहा हूं। किसका अंत:पुर ! किसका प्रासाद ! किसका नगर ! मेरा कुछ भी नहीं है। मिथिला के जलने पर भी मेरा तो कुछ भी नहीं जल रहा है। यह कितना अव्यावहारिक कथन लगता है ! कितनी करुणाहीन बात लगती है ! क्या कोई करुणावान् व्यक्ति ऐसा कह सकता है ? परम कोटि का क्रूर व्यक्ति ही ऐसी बात कह सकता है। किंतु हम बहुत बार भूमिका-भेद को समझे बिना भयंकर भूल कर बैठते हैं। यह भी हमारी भयंकर भूल होगी, यदि हम नमि राजर्षि की स्थिति को क्रूरता से परिपूर्ण मानें । यह उस तितिक्षा की, उस परम चेतना की स्थिति है, जहां पहुंचकर साधक अनुकूलता और प्रतिकूलता के प्रकंपनों से परे हो जाता है । वह चेतना इतनी अप्रकंप हो जाती है कि जहां केवल चेतना ही होती है और कुछ भी नहीं होता। राग और द्वेष न हों, इसलिए चेतना में तितिक्षा का विकास होना चाहिए। यदि द्वंद्वों को सहन करने की चेतना का विकास नहीं होता है तो राग और द्वेष अवश्य होते हैं। उन्हें रोका नहीं जा सकता। इस प्रकार वीतराग चेतना और तितिक्षा की चेतना-दोनों प्रकार की चेतनाओं का विकास करके ही हम कर्म विपाकों में परिवर्तन ला सकते हैं । यदि तितिक्षा की चेतना विकसित होती है तो मोहनीय कर्म का विपाक नहीं हो सकता, आवेग नहीं हो सकता । आवेग तभी होता है, जब तितिक्षा की चेतना विकसित नहीं होती । अहंकार और ममकार-शून्य चेतना विकसित नहीं होती। इसीलिए आवेग आते हैं। हम प्रतिपक्ष की चेतना को विकसित करें। क्रोध है तो मैत्री की चेतना को विकसित करें। मैत्री के संस्कारों को सुदृढ़ बनाएं। मैत्री के संस्कार दृढ़ होंगे तो क्रोध का आवेग अपने-आप कम होता चला जाएगा। प्रतिपक्ष भावना साधना का बहुत बड़ा सूत्र है। दशवकालिक सूत्र में चार आवेगों की प्रतिपक्ष भावना का सुन्दर निरूपण प्राप्त है। यदि क्रोध के आवेग को मिटाना है, कम करना है तो उपशम के संस्कार को पुष्ट करना होगा । क्रोध का प्रतिपक्ष है-उपशम। उपशम का संस्कार जितना पुष्ट होगा, कोध का आवेग उतना ही क्षीण होता चला जायेगा। मान के आवेग को नष्ट करना है तो मृदुता को पुष्ट करो। मान का प्रतिपक्ष है मदुता। माया के आवेग को नष्ट करना है तो ऋजुता के संस्कार को पुष्ट करो। ऋजुता और मैत्री में कोई अन्तर नहीं है । मैत्री ऋजुता का ही प्रतिफलन है । जब ऋजुता है तो किसी के साथ शत्रुता हो ही नहीं सकती। शत्रुता से पूर्व कुटिलता आती है। शत्रुता कुटिलतापूर्वक ही होती है। बिना कुटिलता के शत्रता नहीं होती। जब १७४ : चेतना का ऊर्ध्वारोहण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003090
Book TitleChetna ka Urdhvarohana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1978
Total Pages214
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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