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________________ भगवान महावीर ने धर्म के दो लक्षण बताए। उन्होंने कहा-धर्म का पहला लक्षण है-अहिंसा, राग-द्वेष का न होना। धर्म का दूसरा लक्षण है-परीषहसहन, कष्टों को सहने की क्षमता । जीवन में द्वंद्व आते हैं। कभी सुख आता है और कभी दुःख । कभी अनुकूलता रहती है और कभी प्रतिकूलता। कभी प्रियता की संवेदना होती है और कभी अप्रियता की। कभी प्रशंसा होती है और कभी निंदा । कभी उपलब्धि होती है और कभी हानि । ये जो सारे द्वंद्व आते हैं, इनको सहन करने वाली तितिक्षा की चेतना जब तक जागृत नहीं होती, तब तक न साधना होती है और न आवेग ही कम होते हैं। ऐसी स्थिति में कर्म के व्यूह को भी नहीं तोड़ा जा सकता। इसलिए हमारी दोनों प्रकार की शक्तियां जागृत होनी चाहिए। एक है अ-राग की शक्ति और एक है अ-द्वेष की शक्ति-अराग चेतना और अद्वेष चेतना । वीतराग चेतना के साथ-साथ तितिक्षा की चेतना भी जागृत होनी चाहिए। यदि तितिक्षा नहीं है तो राग भी आ सकता है और द्वेष भी आ सकता है। अनुकूलता में राग आएगा। राग को सहने की भी शक्ति होनी चाहिए। अनुकूलता को सहन करने की शक्ति होनी चाहिए। मन के अनुकूल कोई घटना घटित होती है, उसे यदि हम सहन नहीं कर सकते तो मन में राग पैदा हो जायेगा, आवेग भी पैदा हो जायेगा। बहुत हर्ष होना, अध्यात्म की दृष्टि से ही अवांछनीय नहीं है, स्वास्थ्य की दृष्टि से भी वांछनीय नहीं है। यह अकालमृत्यु का कारण बन जाता है। . एक आदमी बहुत गरीब था। लाटरी में उसे दो लाख रुपये मिले। किसी ने आकर कहा-भाई ! तुम तो निहाल हो गये। तुम्हारे नाम की लाटरी में दो लाख रुपये उठे हैं । उसने कहा-दो लाख ! यह कहते ही वह धड़ाम से नीचे गिरा और इस लोक से चल बसा। अनुकूलता और प्रतिकूलता को सहन करने के लिए तितिक्षा की चेतना जागृत होनी चाहिए। कोई व्यक्ति बड़ी-से-बड़ी स्थिति में है। उसको बड़ी-से-बड़ी उपलब्धि है। सारे अनुकूल संयोग हैं। अकस्मात् सब छिन जाते हैं। सत्ता छिन जाती है, अधिकार छिन जाते हैं । संपदा नष्ट हो जाती है, परिवार बिखर जाता है। उस स्थिति में प्रतिकूलता को सहने की चेतना यदि जागृत नहीं होती तो व्यक्ति दिग्भ्रान्त हो जाता है। जिसकी यह चेतना जागृत होती है, उसके लिए अनुकूलता या प्रतिकूलता में कोई अंतर नहीं आता। जैन आगमों में नमि राजर्षि का एक उदाहरण आता है । व्यवहार की दुनिया में वह शायद मान्य न हो, किंतु वह उस चेतना का प्रतीक है, वह उस चेतना का दिग्दर्शक है, जिस चेतना के बिंदु पर पहुंचकर व्यक्ति की तितिक्षा की चेतना इतनी जागृत हो जाती है कि उसके लिए कोई भी प्रकंपन शेष नहीं रहता। न राग का प्रकंपन होता है और न द्वेष का प्रकंपन होता है । आवेग-चिकित्सा : १७३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003090
Book TitleChetna ka Urdhvarohana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1978
Total Pages214
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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