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भिन्न हूं, मैं शरीर नहीं हूं-यह बोध स्पष्ट हो जाता है । मैं शरीर हूं-यह अस्मिता है। अस्मिता एक क्लेश है। भेदज्ञान होते ही अस्मिता मिट जाती है, क्लेश मिट जाता है। इसके मिटते ही दूसरा संस्कार निर्मित हो जाता है । 'मैं शरीर नहीं हूँ', 'मैं शरीर नहीं हं', 'मैं शरीर से भिन्न हूँ'-यह भी एक संस्कार है। यह प्रतिप्रसव है, अर्थात उस संस्कार को मिटाने वाला संस्कार है। शरीर के साथ अभेदानुभूति, 'अहमेव देहोस्मि' का जो भाव है, मैं शरीर हूं, मैं देह हं-यह जो भाव है, यह मिथ्या दृष्टिकोण है। वह समाप्त हो जाता है। उसे समाप्त करने के लिए दूसरे संस्कार का निर्माण करना होता है। मैं शरीर नहीं हैं'.-यह प्रतिप्रसव है, प्रतिपक्ष का संस्कार है।
जैसे ही आवेग की दूसरी अवस्था (अप्रत्याख्यानावरण) उपशान्त या क्षीण होती है, तब उस रास्ते पर चलने की भावना निर्मित हो जाती है। तब मन में भावना होती है कि विरति का, त्याग का रास्ता अच्छा है, प्यास बुझाने वाला है, इस पर अवश्य चलना चाहिए। कर्मशास्त्र की भाषा में देशविरति गुणस्थान उपलब्ध हो जाता है। यह आध्यात्मिक विकास की पांचवीं भूमिका है।
आध्यात्मिक विकास के क्रम में जब हम आगे बढ़ते हैं, अभ्यास करते-करते जैसे मोह का वलय टूटता जाता है, उसका प्रभाव मंद होता जाता है, तब तीसरी ग्रन्थि खुलती है । इस ग्रन्थि का नाम है प्रत्याख्यानावरण । यह आवेग की तीसरी अवस्था है। इसके टूटने से विरति के प्रति व्यक्ति पूर्ण समर्पित हो जाता है । जो चलना प्रारंभ किया था, अब उसके लिए पूर्ण समर्पित हो जाता है। यह आध्यात्मिक विकास की छठी भूमिका है। इस भूमिका में व्यक्ति साधु बन जाता है, संन्यासी बन जाता है। पांचवीं भूमिका गृहस्थ साधकों की है और छठी भूमिका मुनि-साधकों की है। दोनों साधना के इच्छुक हैं, दोनों साधना-पथ के पथिक हैं। दोनों ने चलना शुरू किया है। वे उस यात्रा के लिए समर्पित हो चुके हैं। एक व्यक्ति गृहस्थ जीवन में साधना करता है और एक व्यक्ति मुनि जीवन में साधना करता है । गृहस्थ जीवन से मुनि जीवन में आ जाना कोई आकस्मिक घटना नहीं है, एक छलांग नहीं है। कहीं-कहीं, कभी-कभी आकस्मिक घटना भी घटित होती है, छलांग भी लगती है। हमारे विकास के क्रम में भी छलांगें होती हैं । विकास के एक क्रम में चलते-चलते ऐसी छलांग आती है कि व्यक्ति को नयी उपलब्धि प्राप्त हो जाती है, नया प्रजनन हो जाता है, नया घटित हो जाता है। यह छलांग है। किन्तु गृहस्थ जीवन से मुनि जीवन में आ जाना कोई छलांग नहीं है। इसमें निश्चित क्रम की व्यवस्था है। कोई गृहस्थ होकर साधना का प्रारम्भ करता है और कोई मुनि बनकर साधना की यात्रा पर चलता है। इसके पीछे भी मोह के आवेगों का सिद्धान्त काम करता है। जिस व्यक्ति के मोह का कुछ विलय हआ है, एक निश्चित मात्रा में, तो उस व्यक्ति के मन में साधना का भाव जागत
१६० : चेतना का ऊर्ध्वारोहण
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