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होता है । जिस व्यक्ति के मोह का अधिक विलय हुआ है, उस व्यक्ति के मन में साधना के प्रति समर्पित हो जाने की बात प्राप्त होती है। __ भगवान महावीर ने साधु-जीवन की जो व्यवस्था की, वह नयी व्यवस्था थी। उन्होंने यह व्यवस्था दी कि जैन शासन में जो भी प्रवजित होगा, वह जीवन भर के लिए मुनि बनेगा, कुछ समय के लिए नहीं। उसे यावज्जीवन मुनिव्रत को पालने की प्रतिज्ञा करनी होगी। बौद्धों में दूसरी व्यवस्था है । बौद्ध-शासन में भिक्षु बनने वाले के लिए यह आवश्यक नहीं है कि वह यावज्जीवन तक भिक्षु ही बना रहे। वह दो वर्ष, पांच वर्ष, दस वर्ष, बीस वर्ष तक अर्थात् सावधिक भिक्षु रह सकता है। यह तथ्य मनोवैज्ञानिक-सा लगता है । बुद्ध ने ऐसा स्तर बतला दिया कि आज साधना के लिए चले, भिक्षु बने, जब तक संभव हुआ तब तक भिक्षु बने रहे, जब इच्छा हुई तब पुनः घर लौट आये। ____ किंतु महावीर ने जो यावज्जीवन की व्यवस्था की, वह मनोवैज्ञानिक भूमिका से भी परे की बात है। यह बहुत ही महत्त्वपूर्ण तथ्य है। उन्होंने इस व्यवस्था की पृष्ठभूमि में कहा कि जो साधना के प्रति पूर्ण समर्पित नहीं होता वह भिक्षु कैसे हो सकता है, जिसका यह संकल्प ही नहीं कि मैं जीवन-भर मुनि बना रहंगा, वह लक्ष्य के प्रति पूर्णतः समर्पित कैसे हो सकता है ? जिस व्यक्ति की पृष्ठभूमि में मोह-विलय की इतनी प्रेरणा नहीं कि वह साधना के प्रति सदा के लिए समर्पित हो जाये, वह गहस्थ-साधु हो सकता है, किंतु गृहत्यागी अनगार साधु कैसे हो सकता है ? इस मोह-विलय के तारतम्य के आधार पर, इस कर्म की प्रेरणा की वास्तविकता के आधार पर महावीर ने यह अनिवार्य बात जोड़ी कि कोई मुनि बनेगा तो वह आजीवन के लिए बनेगा, यावज्जीवन ने लिए होगा, अल्पकाल के लिए नहीं। क्योंकि जब प्रत्याख्यानावरण का विलय नहीं है, तो मुनित्व आ नहीं सकता।
मुनित्व और श्रावकत्व की हमारी व्यावहारिक कल्पना है। सम्यक् दर्शन की भी एक व्यावहारिक कल्पना है। जहां संघ और समाज होता है, संगठन होता है, वहां व्यवहार भी चलता है। किंतु व्यवहार व्यवहार होता है, उस में वास्तविकता बहुत कम होती है। निश्चय वास्तविक होता है। निश्चय सत्य की उपलब्धि निश्चय के द्वारा होती है। निश्चय को हम छोड़ दें और केवल व्यवहार पर चलें तो जो सत्य उपलब्ध होना चाहिए वह उपलब्ध नहीं होता।
__ अनेकांत दर्शन के दो पक्ष हैं-व्यवहार और निश्चय । अनेकांत का पंछी निश्चय और व्यवहार-इन दोनों पंखों को फड़फड़ाकर उड़ता है। एक पंख से वह उड़ नहीं पाता। एक पंख उसका काटा नहीं जा सकता। न व्यवहार को काटा जा सकता है और न निश्चय को काटा जा सकता है।
जब हम व्यवहार की भाषा में चलते हैं, तब जीव आदि नौ पदार्थों को
आवेग : उप-आवेग : १६१
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