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है। जीवन में सारा विपर्यय ही विपर्यय होता है । इस तीव्र आवेग की ऐसी रासायनिक प्रक्रिया होती है कि वह व्यक्ति के चिंतन-मनन को विकृत कर देती है। चिंतन-मनन विपर्यस्त हो जाता है। जब उस आवेग की तीव्रता कम होती है, उसका परिशोधन होता है, उसका तनुभाव होता है, वह क्षीण होता है तब दूसरी अवस्था (अप्रत्याख्यान) प्राप्त होती है। ___अनन्तानुबंधी अवस्था का विलय होते ही दृष्टिकोण सम्यक् हो जाता है । यह साधना की पहली भूमिका है। यह आध्यात्मिक चेतना के विकास की पहली भूमिका है। कर्मशास्त्र की भाषा में इस भूमिका का नाम है-सम्यक्दृष्टि गुणस्थान । यह सत्य को सत्य जानने की भूमिका है। यहां अतत्त्व में तत्त्व की बुद्धि नहीं रहती। असत्य में सत्य का भाव नहीं रहता। व्यक्ति जो जैसा है, उसे वैसा जानने लग जाता है। उसकी दृष्टि सम्यक् हो जाती है। सत्य उपलब्ध हो जाता है।
आवेग की दूसरी अवस्था विद्यमान रहती है तब आध्यात्मिक चेतना के विकास के लिए जिस प्यास को बुझाना चाहिए, जिस प्यास से दूर रहना चाहिए, जो प्यास बुझ जानी चाहिए, जो अनन्त आकांक्षा, अनन्त प्यास है, वह बुझती नहीं । बोध यथार्थ हो जाता है कि यह प्यास है और ऐसी प्यास है जो बुझती नहीं। कितना ही पीओ, वह नहीं बुझेगी। जितना पीते हैं, उतनी ही वह प्यास प्रज्ज्वलित होती रहती है । बुझती नहीं । बुझाने का मार्ग प्राप्त नहीं है। क्योंकि आवेग की दूसरी अवस्था विद्यमान है। वह पथ प्राप्त नहीं करने देती। उससे प्रभावित होकर व्यक्ति प्यास बुझाने के मार्ग को स्वीकार ही नहीं करता। आवेग की यह ग्रन्थि उसे वैसा करने नहीं देती। उस ग्रन्थि का ऐसा स्राव होता है, जो उस प्यास को बुझाने के रास्ते पर मनुष्य को चलने ही नहीं देता। चेतना ऐसी बन जाती है कि व्यक्ति जानते हुए भी कर नहीं पाता।
कई बार हम लोगों को यह कहते हुए सुनते हैं कि वह मार्ग बहुत अच्छा है। पर हम चल नहीं सकते। ध्यान बहुत अच्छा है, पर हम उसे कर नहीं पाते। निकम्मा कौने बैठे ? काम बहुत है। व्यस्तता बहुत है। इच्छा ही नहीं होती कि ध्यान किया जाये । कभी इच्छा नहीं होती कि साधना की जाये, थोड़ी-सी निवृत्ति की जाये। यद्यपि ध्यान भी एक प्रवृत्ति है, साधना भी एक प्रवृत्ति है, फिर भी उसमें मन नहीं लगता। मन उसी प्रवृत्ति में लगता है, जिसको हम रात-दिन करते आ रहे हैं। यह भी सकारण होता है। इसका मूल कारण है--दूसरे आवेग की विद्यमानता। जैसे-जैसे आध्यात्मिक चेतना का क्रम बढ़ता है, वह दूसरा आवेग घुलता जाता है, उसका शोधन होता जाता है, तब व्यक्ति में विरति की ओर बढ़ने की भावना होती है । इस आवेग का नाम है-अप्रत्याख्यान ।
पहला आवेग टूटता है। तब भेदज्ञान की उपलब्धि होती है। मैं शरीर से
आवेग : उप-आवेग : १५६
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