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फैल जाता है । वह जाल बहुत बड़ा होता है । वे कीटाणु संतति पैदा करते ही चले जाते हैं । कहीं रुकते ही नहीं ।
इसी प्रकार जिस आवेग की संतति आगे से आगे बढ़ती चली जाती है, वह तीव्रतम आवेग हमारे दृष्टिकोण को प्रभावित करता है। जब तक वह आवेग होता है, तब तक दृष्टिकोण सम्यक् नहीं होता । क्योंकि मूर्च्छा इतनी सघन होती है कि एक मूर्च्छा दूसरी मूर्च्छा को, दूसरी मूर्च्छा तीसरी मूर्च्छा को और तीसरी मूर्च्छा चौथी मूर्च्छा को उत्पन्न करती चली जाती है। इसका कहीं अंत नहीं आता । सम्यक् देखने का हमें अवसर ही नहीं मिलता। एक के बाद दूसरी गलती, गलतियों को दोहराते चले जाते हैं और दृष्टि में भ्रम छाया का छाया रहता है । यह प्रखरतम आवेग हमारी दृष्टि को विकृत करता है ।
यह ग्रंथिपात का क्रम है। मनोविज्ञान की भाषा में कहा जाता है कि जब आवेग प्रबल होता है, तब ग्रंथिपात होता है । यह आवेग आने के बाद जाता नहीं । जब क्रोध अनंतानुबंधी की कोटि का होता है, तब वह सहजता से नहीं जाता । वह चट्टान की दरार जैसे होता है । चट्टान में दरार पड़ गयी, वह फिर मिटती नहीं । अमिट बन जाती है । एक रेखा बालू पर खींची जाती है और एक रेखा पानी पर खींची जाती है। पानी की रेखा तत्काल मिट जाती है, मिट्टी की रेखा कठिनाई से मिटती है, फिर भी वह चट्टान की दरार की भांति कठिन नहीं होती । आवेग की भी ये चार स्थितियां, अवस्थाएं होती हैं। तीव्रतम, तीव्रतर, मंद और मंदतर । कर्मशास्त्र की भाषा में इनके चार नाम हैं
तीव्रतम - अनन्तानुबंधी तीव्रतर अप्रत्याख्यानी
मंद -- प्रत्याख्यानी मंदतर --संज्वलन |
प्रथम कोटि का आवेग दृढ़तम होता है । उस स्थिति में राग-द्वेष की गांठ इतनी कठोर होती है कि सम्यकदृष्टि प्राप्त नहीं होती । सत्य को सत्य के रूप में स्वीकार करने की तैयारी नहीं होती । उसके उदय से भौतिक जीवन इतना मूर्च्छामिय, इतनी प्रगाढ़ निद्रामय हो जाता है कि व्यक्ति सत्य को देखने का प्रयत्न ही नहीं करता, जागृति के बिन्दु पर पहुंचने का प्रयत्न ही नहीं कर पाता । जीवन में केवल मूर्च्छा ही मूर्च्छा व्याप्त रहती है । दृष्टि मूच्छित रहती है । यथार्थ हाथ नहीं लगता । निंदियाई आंखों से आदमी ठीक देख नहीं पाता, नशे में आदमी देख नहीं पाता, उसे यथार्थ का बोध नहीं होता, क्योंकि वह मत्त है, सुप्त है। जब तक आवेग की यह अवस्था बनी रहती है, राग-द्वेष की तीव्र ग्रंथि होती है, तब तक सत्य का दर्शन नहीं होता । सम्यक् दर्शन उसे प्राप्त नहीं होता । वह मिथ्यादृष्टि होता है । उसका दर्शन मिथ्या होता है । तत्त्व का विपर्यय होता
१५८ : चेतना का ऊर्ध्वारोहण
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