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________________ संदेश को ले जाती है । उत्तेजना पैदा हो जाती है । वह पाचन संस्थान को भी प्रभावित करती है । पाचन अस्त-व्यस्त हो जाता है । उत्तेजना मांसपेशियों तक पहुंचती है । वे सक्रिय हो जाती हैं। एड्रिनल ग्रंथि का स्राव अधिक होता है, उसके कारण व्यक्ति में कुछ साहसिक कार्य करने की क्षमता जागृत हो जाती है । वह साहसिक बनकर प्रहार करने की स्थिति में आ जाता है । यह सारा शारीरिक परिवर्तन आवेग के कारण होता है और फिर बाहर से उसके लक्षण भी दिखाई देने लग जाते हैं । जिनके आधार पर हम समझ सकते हैं कि व्यक्ति भयभीत है, क्रोधी है। आवेगों के कारण शारीरिक क्रियाओं में रासायनिक परिवर्तन, शारीरिक लक्षणों में परिवर्तन और अनुभूति में परिवर्तन होता है । इन सारी बातों के साथ एक बात और जोड़ दें कर्मशास्त्र की। आवेगों के कारण बहुत सारी बातें होती हैं । इसके साथ एक बात पहले जोड़ दें और एक बात पीछे जोड़ दें। पहले यह जोड़ें कि भय परिस्थिति से उत्पन्न नहीं है, परिस्थिति से उद्भूत है । उत्पन्न होना अलग बात है और उद्भूत होना अलग बात है । परिस्थिति से भय उद्भूत हुआ, जागृत हुआ, जो सोया हुआ था, वह जाग उठा । किंतु वह उत्पन्न हुआ है मोह के कारण । भय भय- वेदनीय मोह के कारण उत्पन्न होता है । उस व्यक्ति में ऐसे परमाणु संचित हैं जो किसी निमित्त का सहारा पाकर उत्पन्न हो जाते हैं । यह पहले जोड़ने वाली बात है । एक बात बाद में जोड़ें। जो डरता है, जो भयभीत है, वह भय के कारण केवल शारीरिक या मानसिक परिवर्तन ही नहीं करता, किंतु दूसरे परमाणुओं का संग्रह भी करने लग जाता है और इतने परमाणु गृहीत कर लेता है जो मोह को और अधिक पोषण देते हैं । कर्मशास्त्र में मोहनीय कर्म के चार आवेग माने हैं— क्रोध, मान, माया और लोभ | इन्हें 'कषाय - चतुष्टयी' कहा जाता है । ये चार मुख्य आवेग हैं । कुछ उप-आवेग हैं । उनकी संख्या सात या नौ है । हास्य, रति, अरति, भय, शोक, जुगुप्सा और वेद । ये सात या वेद को स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद में हम विभक्त करें तो उप-आवेग नौ हो जाते हैं । इन्हें 'नौ - कषाय' कहा जाता है । ये पूरे कषाय नहीं हैं । कषायों के कारण होने वाले 'नौ कषाय' हैं, मूल आवेगों के कारण होने वाले उप-आवेग हैं । ईर्ष्या करना, आदर देना आदि-आदि आवेग हैं या नहीं - यह प्रश्न होता है ? कर्मशास्त्र में भी ये आवेग के रूप में स्वीकृत नहीं हैं। मानसशास्त्र में भी ये आवेग नहीं माने गये हैं । मानसशास्त्रीय परिभाषा के अनुसार ईर्ष्या आदि मूल आवेग नहीं हैं । ये सम्मिश्रण हैं। मिश्रित आवेग हैं। इनमें अनेक आवेगों का एक साथ मिश्रण हो जाता है । ये मूल नहीं हैं । कर्मशास्त्रीय परिभाषा के अनुसार भी मिश्रित हैं, मूल नहीं हैं। उसके अनुसार मूल आवेग चार और उप-आवेग सात यानी हैं । Jain Education International आवेग : उप-आवेग : १५५ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003090
Book TitleChetna ka Urdhvarohana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1978
Total Pages214
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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