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________________ विशेष सत्ता होती है । जो कर्म परमाणु हमारे द्वारा आकृष्ट होते हैं, उनमें उसी समय एक विशेष प्रकार की क्षमता निर्मित हो जाती है। उस क्षमता का नाम हैरसानुभाव, यानी अनुभाग बन्ध । इसका अर्थ है-फल देने की क्षमता, फलशक्ति। कर्म के सभी परमाणुओं में फलदान की समान क्षमता निर्मित नहीं होती। वह विभिन्न प्रकार की होती है। हम जानते हैं कि विश्व के सभी पदार्थों में एक ही प्रकार की क्षमता नहीं होती। होम्योपैथिक दवाएं अलग-अलग क्षमताओं वाली होती हैं। कुछ हाई पोटेन्सी की होती हैं और कुछ लो पोटेन्सी की। कुछ औषधियां एक लाख पोटेन्सी की होती हैं और कुछ केवल तीस या उससे भी कम पोटेन्सी की । क्षमता के निर्माण में कितना अन्तर होता है। ___ गाय के दूध में भी चिकनाई है, भैंस के दूध में भी चिकनाई है, तिल्ली और सरसों के तेल में भी चिकनाई है, किन्तु चिकनाई की मात्रा में बहुत अन्तर है। सबमें समान चिकनाई नहीं है। यह शक्ति और मात्रा का जो तारतम्य होता है वह पदार्थ की विशेष संरचना के आधार पर होता है। वैसे ही कर्मों की जो फलदान की शक्ति है, उसमें भी तारतम्य होता है और वह तारतम्य उन कर्म-परमाणुओं की संरचना के कारण होता है। यह संरचना हमारी राग-द्वेष की तीव्रता और मंदता के आधार पर होती जिस क्षण में हम कर्म-पुद्गलों को आकर्षित करते हैं, उस क्षण में यदि रागद्वेष तीव्र होता है तो उन कर्म-पुद्गलों की फलदान-शक्ति भी तीव्र हो जाती है और यदि राग-द्वेष मंद होता है तो फलदान-शक्ति भी मंद हो जाती है । यह तीव्रता या मन्दता, यह तारतम्य-यह सब हमारे कषायों, आवेगों और राग-द्वेष के आधार पर होता है। इसलिए साधना का एक बड़ा सूत्र यह है--जो करो, अनासक्तभाव से करो। आसक्ति को तीव्र मत होने दो। इसका तात्पर्य यह है कि आसक्ति की जितनी तीव्रता होगी, कर्म का फल उतना ही तीव्र होगा। आसक्ति की जितनी मन्दता होगी, कर्म का फल उतना ही मंद होगा। अनुभाव की तीव्रता और मंदता आसक्ति की तीव्रता और मंदता पर आधत है। . यह सच है कि साधना करने वाला भी प्रवृत्ति को सर्वथा रोक नहीं सकता और साधना करने वाले के समक्ष प्रवृत्ति को रोकने का प्रश्न भी नहीं है । साधना करने वाले के लिए खाना भी जरूरी है, श्वास लेना भी ज़रूरी है, बोलना भी ज़रूरी है, सोचना भी जरूरी है। जीवन-संचालन की जो क्रियाएं, जो प्रवृत्तियां हैं, वे सारी ज़रूरी हैं । उन्हें रोका नहीं जा सकता। कोई मौन करता है तो वह आधा घंटे का, दो घंटे का, दस घंटे का, एक दिन का, दस दिन का या महीने तक का मौन कर सकता है । बारह वर्ष भी मौन रह सकता है। किन्तु आखिर बोलना ही पड़ेगा। बिना बोले काम कैसे चलेगा ? बोलने की एक स्वाभाविक व्यवस्था १२८ : चेतना का ऊर्ध्वारोहण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003090
Book TitleChetna ka Urdhvarohana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1978
Total Pages214
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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