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________________ न्यायाधीश या प्रशासक उसे दंड देता है, उसके दंड की व्यवस्था करता है। अपराध के दंड के लिए भी कोई तीसरा व्यक्ति होता है तो विश्व की इस विराट व्यवस्था के लिए कोई नियामक या नियंता न हो, कोई प्रशासक न हो तो फल देने की व्यवस्था कैसे चल सकती है ? इस संदर्भ में यह जो कहा गया कि कोई फल देने वाला होना चाहिए, यह अस्वाभाविक भी नहीं लगता। किंतु यह तर्क जब मीमांसित होता है, इस पर गहराई से विचार करते हैं तो कुछ और नये तर्क खड़े हो जाते हैं। कुछ और नये प्रश्न उभर आते हैं। वे प्रश्न सचमुच उलझाने वाले प्रश्न हैं। यदि कोई नियंता है, नियामक है, प्रशासक है, फल देने वाला है तो फल देने की बात 'द्वयम्' हो जायेगी, उसका नंबर दूसरा होगा। उससे पहले कर्तृत्व की बात आ जायेगी कि कोई कराने वाला भी है। कर्तृत्व और उसका फलभोगदोनों जुड़े हुए प्रश्न हैं। यदि कोई कराता है तो फल भोगाने वाला भी है और यदि कोई कराने वाला नहीं है तो फल भुगताने वाला भी नहीं है। यदि कोई कराने वाला है तो बहुत बड़ी एक पहेली सामने आती है कि वह एक इतनी विराट् सत्ता होगी जो विराट् जगत् में सब कुछ कराये, करा सके, कराने की क्षमता से सम्पन्न हो। वह फिर ऐसा कोई कार्य करायेगी ही क्यों, जिससे प्राणियों को अशुभ फल भोगना पड़े। मनुष्यों द्वारा फिर अप्रिय व्यवहार होगा ही क्यों ? उसे अप्रिय फल भुगतना ही क्यों पड़ेगा? यह एक जटिल प्रश्न है। यह दूसरों को उलझा देने वाला प्रश्न है। यदि फल भुगताने वाली बात को हम मान भी लें कि कोई एक ऐसी शक्तिशाली सत्ता है जो फल भुगतने में माध्यम बनती है, और वहां कोई न्याय न हो तो उसे शक्ति-संपन्न सत्ता कहने को जी नहीं चाहता, क्योंकि इतनी विसंगतियां, इतने अभाव और अतिभाव के कारण इतनी कठिनाइयां, इतना अन्याय, इतने अत्याचार, इतनी क्रूरताएं, इतने प्रताड़न-इन सबको यदि किसी कर्तृत्व की सत्ता के साथ जोड़ा जाये और उस शक्ति-संपन्न सत्ता के रहते हुए ये सारे घटित हों तो हम उस सत्ता को परम सत्ता कैसे कह सकते हैं ? प्रत्येक राज्य-व्यवस्था भी यह कामना करती है कि हमारे राज्य में अच्छी से अच्छी व्यवस्था हो, शोषण न हो, अत्याचार न हो। इसके लिए वह पूरी व्यवस्था करना चाहती है, पर कर नहीं पाती क्योंकि वह सर्वशक्ति-संपन्न होने का दावा नहीं करती। इसलिए यह उसके वश की बात नहीं है। वह व्यवस्था मात्र करती है कि ऐसी अव्यवस्था न हो। अच्छी सरकार का यह लक्षण होता है कि उसके प्रशासन द्वारा अपराधों में कमी हो, बुराइयों में कमी हो और एक मनुष्य का दूसरे मनुष्य के प्रति जो अन्यायपूर्ण व्यवहार या क्रूरतापूर्ण व्यवहार होता है वह कम होता चला जाये। वह सर्वशक्ति-सम्पन्न न होते हुए भी इस प्रकार की १२४ : चेतना का ऊर्वारोहण' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003090
Book TitleChetna ka Urdhvarohana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1978
Total Pages214
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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