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किसी प्राणी के द्वारा वे परमाणु स्वीकृत नहीं होते तब तक वे कर्म-प्रायोग्य पुद्गल कहलाते हैं, उन परमाणुओं में कर्म के रूप में बदलने की योग्यता होती है, किंतु वे अभी तक कर्म नहीं होते हैं। जब आकाश मंडल में वे परमाणु फैले हुए होते हैं, तब तक वे परमाणु मात्र हैं, कर्म नहीं हैं । किंतु उनमें कर्म बनने की योग्यता है । एक बात ध्यान में रहे कि हर परमाणु कर्म नहीं बनता । कर्म वही बनता है जिस परमाणु कर्म बनने की योग्यता होती है ।
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परमाणु के विभिन्न प्रकार हैं। एक हाइड्रोजन का परमाणु है, एक ऑक्सीजन का परमाणु है, एक नाइट्रोजन का परमाणु है अनेक गैसें हैं । उनके परमाणु भिन्न-भिन्न हैं। उनकी अपनी-अपनी क्षमता है। जो कर्म-वर्गणा है, जो परमाणु कर्म के रूप में बदल सकते हैं उनकी भी अपनी विशिष्टता है । परमाणुओं के पचासों वर्ग हैं, पचासों वर्गणाएं हैं, पचासों समूह हैं। उनकी अपनी-अपनी विशेषताएं हैं । किंतु एक पुद्गल वर्गणा ऐसी है जो कर्म के रूप में बदल सकती है । वही वर्गणा हमारी प्रवृत्ति के द्वारा हमारी चंचलता के द्वारा आकृष्ट होती है | आकृष्ट होते ही आकर्षण के क्षण में ही उसकी व्यवस्था शुरू हो जाती है । पहले कोई व्यवस्था नहीं होती। उस अवस्था में एक विभाजन होता है । जो परमाणु आते हैं उनका विभाजन प्रारंभ होता है और स्वभाव का निर्माण होने लग जाता है कि कौन से परमाणु किस स्वभाव में काम करेंगे। पहले दो व्यवस्थाएं होती हैं - एक विभाजन की व्यवस्था और दूसरी स्वभाव-निर्माण की व्यवस्था, प्रकृति की व्यवस्था कि उनकी प्रकृति क्या होगी ? उनका कार्य क्या होगा ? वे क्या करेंगे ? इनके साथ-साथ दो व्यवस्थाएं और होती हैं । एक व्यवस्था होती है। अनुभाव की, फल देने की क्षमता । उन परमाणुओं में जो रसाणु हैं, जो रस-शक्ति है, रस का परिपाक होता है कि ये परमाणु किस प्रकार के रस का संवेदन करायेंगे और उनसे किस प्रकार का प्रभाव होगा। यह है अनुभाव, फलदान की शक्ति ।
बहुत बार यह प्रश्न होता है कि कर्म का फल मिलता है, पर कौन देता है ? देने वाला कौन है ? इस प्रश्न पर विभिन्न दृष्टियों से विचार किया गया । कुछ चिकों ने यह प्रतिपादन किया कि फल देने वाली एक सत्ता है। आदमी कर्म करता है, पर वह स्वयं उसका फल भोगना नहीं चाहता । अतः कोई न कोई नियामक अवश्य है, नियंता अवश्य है, जो कि फल देता है । यह बात स्वाभाविकसी लगती है कि आदमी स्वयं अपने आप फल भोगना क्यों चाहेगा ? वह अच्छे कर्म का फल भोगना तो अवश्य ही चाहेगा, बुरे कर्म का फल भोगना कभी नहीं चाहेगा । वह कभी उसे इष्ट नहीं होगा कि जो उसने बुरा किया है उसका वह फल भोगे । उस स्थिति में यह तर्क बहुत स्वाभाविक लगता है कि कोई फल देने वाला अवश्य ही होना चाहिए। इसका समाधान भी स्थूल व्यवस्था के आधार पर किया गया कि कोई भी अपराधी अपने आप दंड भुगतना नहीं चाहता ।
कर्म की रासायनिक प्रक्रिया (२) : १२३
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