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________________ - यह एक वृत्त है । इसमें सारी स्थितियां पलती जा रही हैं। यही वृत्त हमारे सभी आचरणों का आधार बनता है। यह स्थिति तब तक चलती रहती है जब तक हम संज्ञातीत चेतना तक नहीं चले जाते, जब तक हमारी चेतना वीतराग नहीं बन जाती। जब तक वीतराग चेतना प्राप्त नहीं होती, संज्ञातीत चेतना उपलब्ध नहीं होती तब तक संज्ञा की चेतना, राग-द्वेष की चेतना चलती रहती है, यह चक्र निरंतर गतिशील रहता है। हमारे सारे आचरण उससे प्रभावित रहते हैं। हम किसी भी घटना का या मानवीय आचरण की केवल परिस्थिति, हेतु या निमित्त के आधार पर व्याख्या नहीं कर सकते । केवल शारीरिक या रासायनिक परिवर्तनों के आधार पर व्याख्या नहीं कर सकते। उनकी व्याख्या के लिए हमें अतीत को देखना होता है। दूसरे शब्दों में, कर्म के विपाक की व्याख्या करने के लिए, हमें कर्म के बीज को देखना होगा। हमें देखना होगा कि इस विपाक या परिणाम का बीज कहां है और क्या है ? उसके बिना उसकी पूरी व्याख्या नहीं की जा सकती। कभी-कभी हमें लगता है कि यह आकस्मिक हो गया। किंतु कुछ भी आकस्मिक नहीं होता। उसके पीछे एक हेतु होता है, एक कारण होता है। छिपा हुआ जो बीज है, वह कारण है। कारण को हम जब तक ठीक नहीं समझ लेते तब तक उस आचरण का ठीक चित्र प्रस्तुत नहीं कर सकते । एक आदमी सामान्य जीवन जीते-जीते एक असामान्य आचरण कर लेता है । हम आश्चर्य में पड़ जाते हैं-अरे, वह बहुत बड़ा आदमी था। ऐसा काम वह कर नहीं सकता। उससे ऐसा काम हो नहीं सकता। हम एक आश्चर्य के द्वारा उस व्यक्ति के साथ उस आचरण का संबंध जोड़ना नहीं चाहते, किंतु तोड़ना चाहते हैं। यह कोई आश्चर्य नहीं है। आप पचास वर्ष के जीवन को देखकर, वर्तमान और आंखों के सामने गुजरने वाले जीवन को देखकर इतना आश्चर्य नहीं कर सकते । यदि हमारा जीवन केवल पचास वर्ष का ही जीवन होता तो सहज ही हमें यह आश्चर्य हो सकता था कि ऐसा नहीं होना चाहिए था। किंतु यह आश्चर्य ही एक बिंदु है और उस बिंदु पर हम पहुंचकर कुछ रुक सकते हैं तथा अतीत की ओर लौटने को बाध्य हो सकते हैं। तब हमें ज्ञात होता है कि इस व्यक्ति का जीवन पचास वर्ष का ही नहीं है, और पीछे का है। इसका तात्पर्य यह है कि इस व्यक्ति का आचरण, पचास वर्ष में होने वाले जो व्यवहार हैं, उनका प्रतिफलन ही नहीं है किंतु यह और किसी तत्त्व का प्रतिफलन है, जहां से कि यह फलित हो रहा है। - अतीत का दर्शन बहुत विचित्र होता है। आप यह न मानें कि वर्तमान का क्षण समाप्त होते ही सब कुछ समाप्त हो जाता है। संसार में दो प्रकार के पदार्थ हैं-विनाशी और अविनाशी, नश्वर और अनश्वर, नित्य और अनित्य । हम केवल नित्य को ही मानकर न चलें, केवल अनित्य को ही मानकर न चलें। नित्य और अनित्य, नश्वर और अनश्वर, शाश्वत और अशाश्वत-दोनों की संगति के कर्म : चौथा आयाम : १०६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003090
Book TitleChetna ka Urdhvarohana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1978
Total Pages214
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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