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आधार पर कुछ निष्कर्ष निकालें तो हमारे निष्कर्ष सही होंगे। अन्यथा वे निष्कर्ष गलत साबित होंगे। यह नित्य और अनित्य की जो युति है, यह क्षणिक और अक्षणिक की जो युति है, उस युति के आधार पर हम निष्कर्ष निकालें तो वह यह होगा कि जिसका अस्तित्व है, वह कुछ भी नष्ट नहीं होता। विज्ञान की भाषा में कहा जाता है कि ऊर्जा कभी नष्ट नहीं होती। पदार्थ भी कभी नष्ट नहीं होता। जो जितना है, वह उतना ही था और उतना ही रहेगा। भगवान महावीर ने यही कहा-द्रव्य कभी नष्ट नहीं होता। पर्याय बदलती रहती है। वह परिवर्तनशील है। उसमें रूपांतरण होता रहता है । मूल कभी नष्ट नहीं होता। सत्ता कभी नष्ट नहीं होती। जिसका अस्तित्व स्थापित है, वह कभी नष्ट नहीं होता। पर्याय भी चिरकालिक होते हैं। वे भी तत्काल नष्ट नहीं होते।
हमारे शरीर से तदाकार प्रतिकृतियां निकलती हैं। प्रत्येक प्राणी के शरीर से ही नहीं, किन्तु प्रत्येक पदार्थ से उसी आकार की प्रतिकृतियां निकलती हैं और वे आकाश में फैल जाती हैं। हमारे चिन्तन की प्रतिकृतियां निकलती हैं, उनके चित्र निकलते हैं और वे सब आकाश में फैल जाते हैं। हम बोलते हैं। भाषा के पुद्गल आकाश में फैल जाते हैं और वे हजारों-हजारों वर्षों तक उसी रूप में बने रहते हैं। यही तो आधार बनता है अतीत की यात्रा का। यही चौथे आयाम का आधार बनता है।
आज हम अपनी चेतना को विकसित करें, हम अवधिज्ञान और मनःपर्यव ज्ञान का विकास करें, जिससे कि हजारों वर्ष पहले के शरीर की आकृतियों को देख सकें, उसे साक्षात् कर सकें। हजारों-हजारों वर्ष पहले की जो चितन की प्रतिकृतियां हैं, उनको देखकर हम उन विचारों को जान सकें। हजारों-हजारों वर्ष पहले बोली गयी भाषा की जो वर्गणाएं हैं, भाषा के जो पुद्गल हैं, उन पुद्गलों को हम सुन सकें। हम देख सकें, सुन सकें और पढ़ सकें कि ये भाषा की प्रतिकृतियां हैं, ये मन की प्रतिकृतियां हैं और ये शरीर की प्रतिकृतियां हैं। चेतना के विकास के द्वारा यह संभाव्य है। ऐसा भी संभव है कि कोई वैज्ञानिक सूक्ष्मतम यंत्रों का आविष्कार कर, उनके माध्यम से यह संभव बना सके।
वैज्ञानिक जगत् में यह प्रयत्न चल रहा है कि राम, कृष्ण, महावीर, बुद्ध आदि-आदि महापुरुषों की वाणी के पुद्गलों को पकड़कर हम उन्हें साक्षात् सुनें। प्रयत्न चल रहा है । सफल कब होंगे यह कहा नहीं जा सकता। पर ऐसा होना सम्भव है । यह असंभव बात नहीं है। संभव है, क्योंकि आधार निश्चित है। जब भाषा मौजूद है तो प्रश्न भाषा का नहीं रहा, प्रश्न उसे पकड़ने का रहा । यदि हमें पकड़ने का अच्छा माध्यम मिल जाये तो हम शब्दों को सुन सकते हैं, आकृतियों को साक्षात् देख सकते हैं । आत्मा को नहीं देख सकते, किन्तु उन महापुरुषों के
११० : चेतना का ऊर्वारोहण
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