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मायाको रागात्मक माना गया है । माया-काल में चेतना की जो अनुभूति होती है वह प्रिय लगती है कि मैंने बहुत समझदारी से काम किया कि वह परास्त हो गया, प्रताड़ित हो गया । उस समय सुखद अनुभव होता है, प्रीति का अनुभव होता है । माया प्रीत्यात्मक होती है। यह एक बात है ।
माया वंचनात्मक चेतना है । यह दूसरे को ठगने का काम करती है। यह परोपघात है । जो परोपघात होगा वह निश्चिन ही अप्रीत्यात्मक होगा, द्वेषात्मक होगा । इस प्रकार माया की अनुभूति केवल प्रीत्यात्मक या रागात्मक ही नहीं है, वह अप्रीत्यात्मक या द्वेषात्मक भी है।
इसी प्रकार लोभ प्रीत्यात्मक तो है ही, क्योंकि वह एक आसक्ति है, कुछ लेने की भावना है, अपने लिए अर्जित करने की भावना है । बड़ी प्रियता है उसमें । किंतु जब दूसरे के स्व को हड़पने के लिए चेतना काम करती है, दूसरे के अधिकारों को छीनने की भावना होती है, दूसरे के अधिकार में आये हुए पदार्थ को छीनने की इच्छा होती है, तब लोभ अप्रीत्यात्मक बन जाता है। परोपघातक बन जाता है । माया, मान और लोभ — ये तीनों प्रीत्यात्मक भी होते हैं और अप्रीत्यात्मक भी होते हैं । क्रोध ही एक ऐसा है जो कोरा अप्रीत्यात्मक ही होता है । उसका संबंध है द्वेष से अप्रीति से । प्रीति से उसका संबंध नहीं जुड़ता । राग से उसका संबंध नहीं जुड़ता ।
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इस प्रकार हमारी सारी अनुभूतियां, हमारी सारी संवेदनाएं प्रीत्यात्मक या अप्रीत्यात्मक --- इन दो चेतनाओं में समाहित हो जाती हैं ।
इन सारी अनुभूतियों या संवेदनाओं का कारण है— रागात्मक चेतना और द्वेषात्मक चेतना । दो ही कारण हैं । ये ही उन कर्म पुद्गलों को आकृष्ट करते हैं । इनके अतिरिक्त कोई ऐसी शक्ति नहीं है जो उन कर्म - पुद्गलों को अपनी ओर आकृष्ट कर सके । केवल इन दो अनुभूतियों में वह शक्ति निहित है जो उन कर्मपुद्गलों को खींचती है और आत्मा के साथ उनका संबंध स्थापित करती है ।
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ऐसा क्यों होता है ? क्या यह आत्मा के लिए इष्ट है ? प्रश्न इष्ट और अनिष्ट का नहीं है । यह एक उलझन है, एक चक्र है जिसका मुंह नहीं निकाला जा सकता । यह एक वलय है । पता नहीं लगाया जा सकता कि इसका आदि कहां है और अंत कहां है ? मुंह कहां है और छोर कहां है ? यह उलझन है कि क्या आत्मा में राग-द्वेष है, इसलिए कर्म - पुद्गल आ रहे हैं या कर्म आ रहे हैं, इसलिए राग-द्वेष चल रहा है। राग-द्वेष के आधार पर कर्म का प्रवेश और कर्म के आधार पर राग-द्वेष का जीवित रहना, चिरजीवी होना-यह एक वलय है । राग-द्वेष के चिर- जीवन का कारण है कर्म और कर्म के प्रवेश का कारण है - राग-द्वेष | यह एक पूरा चक्र है । यह निरंतर गतिमान् है, कहीं टूटता नहीं। राग-द्वेष से कर्म और कर्म से राग-द्वेष चलता रहता है।
१०८ : चेतना का ऊर्ध्वारोहण
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