________________
महावीर ने कहा- दो स्थानों से कर्म का संबंध होता है। एक स्थान है राग का और दूसरा स्थान है द्वेष का। इन दो स्थानों से आत्मा के साथ कर्म का संबंध होता है। यह राग और द्वेष से स्थापित होने वाला संबंध है। कोरे ज्ञान से कोई संबंध नहीं होता, वासना से कोई संबंध नहीं होता, संस्कार से कोई संबंध नहीं होता, स्मृति से कोई संबंध नहीं होता। जब इनकी पष्ठभूमि में राग नहीं होता, द्वेष नहीं होता तो कर्म का संबंध स्थापित नहीं होता। हम कितना ही जानें, कर्म का संबंध नहीं होगा। जैसे-जैसे चेतना का विकास होता चला जायेगा, जानने की हमारी क्षमता बढ़ती चली जायेगी, तब भी कर्म का कोई संबंध स्थापित नहीं होगा। कर्म का संबंध होगा राग से । कर्म का संबंध होगा द्वेष से।
दो प्रकार की अनुभूतियां हैं। एक है प्रीत्यात्मक अनुभूति और दूसरी है अप्रीत्यात्मक अनुभूति । प्रीत्यात्मक अनुभूति या संवेदना को राग कहते हैं और अप्रीत्यात्मक अनुभूति या संवेदना को द्वेष कहते हैं। प्रीति और अप्रीति-इनके अतिरिक्त तीसरी कोई संवेदना नहीं होती। सारी अनुभूतियां, सारी संवेदनाएंइन दो अनुभूतियों, इन दो संवेदनाओं में समा जाती हैं। क्रोध, मान, माया और लोभ-यह इन्हीं का विस्तार है। भय, शोक, घणा, हास्य, वासना (काम-वासना) ये सारे इन्हीं दो अनुभूतियों का विस्तार है, प्रपंच है, किंतु स्वतंत्र अनुभूतियां नहीं हैं। सारी अनुभूतियां इन दो में समा जाती हैं।
. जैन आचार्यों ने क्रोध और अभिमान को द्वेषात्मक अनुभूति और माया तथा लोभ को रागात्मक अनुभूति माना है। राग और द्वेष-यह सामान्य वर्गीकरण है। जब विभिन्न दृष्टियों से विचार किया गया, नयों की दष्टियों से विचार किया गया तो इस वर्गीकरण का विस्तार हुआ। संग्रहनय की दृष्टि से दो ही वृत्तियां हैं, दो ही अनुभूतियां हैं-एक है रागात्मक, एक है द्वेषात्मक । व्यवहार नय और ऋजुसूत्र नय की दृष्टि से विचार किया गया तो इस वर्गीकरण में परिवर्तन आ गया। यह फलित हुआ कि अभिमान द्वेषात्मक है क्योंकि अभिमान जो है वह दूसरे. के गुणों के प्रति असहिष्णुता का प्रतीक है। व्यक्ति दूसरे को सहन नहीं कर पाता इसलिए अभिमान पैदा होता है । यह द्वेष है, अप्रीत्यात्मक संवेदना है। परंतु एक प्रश्न होता है, क्या मान प्रोत्यात्मक नहीं होता? मान प्रीत्यात्मक भी हो सकता है। दूसरे के प्रति हीनता का भाव है असहिष्णुता का भाव है, इसलिए तो मान अप्रीत्यात्मक है। किंतु जब अपने उत्कर्ष की अनुभूति होती है, उस समय वह प्रीत्यात्मक बन जाता है। उत्कर्ष कितना अच्छा लगता है ! मानवीय चेतना जब अपने उत्कर्ष का अनुभव करती है तब वह अनुभूति अप्रीत्यात्मक नहीं होती, वह प्रीत्यात्मक होती है। इसलिए मान प्रीत्यात्मक भी है और अप्रीत्यात्मक भी है। दूसरे की हीनता के प्रदर्शन में वह अप्रीत्यात्मक होता है और अपने उत्कर्ष की अनुभूति में वह प्रीत्यात्मक होता है।
कर्म : चौथा आयाम : १०७
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org