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________________ चाहता है, मरना नहीं चाहता। भगवान् महावीर ने कहा-सब जीव जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता। यह सत्य का प्रतिपादन है। · महर्षि पतंजलि ने पांच क्लेश माने हैं। उनमें एक है अभिनिवेश। इसका अर्थ है-सभी जीव जीना चाहते हैं। हम वैदिक ऋषियों से सुनते हैं-'जीवेम शरदः शतम्'-हम सौ वर्ष तक जीते रहें। मनुष्य समझदार प्राणी है, चिंतनशील प्राणी है । वह सोच सकता है, विचार सकता है, अभिव्यक्ति कर सकता है। इसीलिए इसने-'जीवेम शरदः शतम्'-सौ वर्ष तक जीने की कामना प्रकट की। जो सामान्य प्राणी हैं, जिनमें चिन्तन का विशेष विकास नहीं है, अभिव्यक्ति की शक्ति नहीं है, जिनकी भाषा स्पष्ट नहीं है, वे जीवेम शरदः शतम्' जैसी भावना व्यक्त नहीं कर सकते। किन्तु उनके अन्तःकरण में भी यह भावना है कि वे जीते रहें, मरें नहीं। यह जिजीविषा प्राणीमात्र की मौलिक मनोवृत्ति है। महत्त्वाकांक्षा, बड़ा बनने की इच्छा-यह भी मौलिक मनोवृत्ति है। एक गाय जंगल में इधर-उधर घूम रही है। वह दो-चार घंटों तक घूमती रहती है। उसके इस आचरण के कारण की खोज करना कठिन नहीं है। उसके घूमने के पीछे भूख की वृत्ति काम कर रही है। यदि उसमें भूख की वृत्ति नहीं होती तो वह घंटों तक जंगल में चक्कर नहीं लगाती। हम जान सकते हैं आचरणों के मूल कारणों को, मूल स्रोतों को और उनके द्वारा प्रत्येक आचरण और व्यवहार की व्याख्या कर सकते हैं। भगवान् महावीर ने दस संज्ञाओं का प्रतिपादन किया-आहार संज्ञा, भय संज्ञा, मैथुन संज्ञा, परिग्रह संज्ञा, क्रोध संज्ञा, मान संज्ञा, माया संज्ञा, लोभ संज्ञा, ओघ संज्ञा और लोक संज्ञा। ये संज्ञाएं आचरणों के मूल स्रोतों को खोजने में बहुत सहायक हैं। हमारे जितने आचरण हैं, जितनी प्रवृत्तियां हैं, उनके पीछे हमारी दस प्रकार की चेतना काम करती है, दस प्रकार की चित्तवृत्तियां काम करती हैं । संज्ञा का अर्थ है-एक प्रकार की चित्तवृत्ति । जिसमें चेतन और अचेतन-दोनों मनों का योग होता है, कॉन्शस माइण्ड और सब-कॉन्शस माइण्ड-दोनों का योग होता है, उसे कहते हैं-संज्ञा या संज्ञान। दस प्रकार की संज्ञाओं (चित्तवृत्तियों) को हम तीन वर्गों में विभक्त कर सकते हैं पहला वर्ग-आहार संज्ञा, भय संज्ञा, मैथुन संज्ञा, परिग्रह संज्ञा। दूसरा वर्ग-क्रोध संज्ञा, मान संज्ञा, माया संज्ञा, लोभ संज्ञा। तीसरा वर्ग-लोक संज्ञा, ओघ संज्ञा। पहले वर्ग की मनोवृत्तियां प्राणीमात्र में प्राप्त होती हैं। मानसशास्त्री जिसे भूख की मनोवृत्ति कहते हैं, उसे जैन आचार्य आहारसंज्ञा कहते हैं। सबमें आहार आचरण का स्रोत : ६७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003090
Book TitleChetna ka Urdhvarohana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1978
Total Pages214
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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