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________________ गया। मिथ्यादर्शन का आदि नहीं है किन्तु उसको अन्त अवश्य है। ___ एक बार जिस व्यक्ति को सम्यग्दर्शन हो जाता है, वह रहता ही है, समाप्त नहीं होता। एक बार जिस व्यक्ति की अविद्या का आवरण टूट गया, फिर वह आवरण कभी नहीं आ पायेगा। वह व्यक्ति विद्या के क्षेत्र में चला जायेगा। एक बार भी जिसके मानस की प्राची में संबोधि का सूर्य उग गया, वह कभी अस्त नहीं होगा। आदि तो है, किन्तु अन्त नहीं है। सादि है और सान्त है-ऐसी घटनाएं हैं जिनका आदि भी है और अन्त भी है। आदमी कितनी बार गुस्सा करता है, कितनी बार क्षमाशील बनता है। हमारे बहुत सारे दैनिक व्यवहार सादि-सान्त होते हैं। उनका आदि भी है और अन्त भी है। दोनों साथ-साथ चलते हैं। हम उस प्रवाह को सोचें जिसके आदि का हमें कोई पता नहीं है । जो अनादि से चला आ रहा है, उसका अनादि-हेतु है। हमारे प्रत्येक आचरण का, प्रत्येक व्यवहार का अनादि-हेतु है, अनादि-कारण है, जो अनादि काल से चला आ रहा है, जिसका आदि-बिन्दु खोजना हमारे लिए संभव नहीं है, किंतु उसका अंत किया जा सकता है। साधना का क्षेत्र इसीलिए तो है। अध्यात्म की साधना किसलिए? वह इसीलिए की जाती है कि अनादि-हेतु को खोजा जाये, उसका अन्त किया जाये। जो हेतु है, कारण है, आचरण के पीछे और आचरण की विसंगतियों के पीछे, उसको खोज निकालना अध्यात्म साधना का प्रयोजन है। जो कारण हमारे आचरण में विभिन्न प्रकार की विसंगतियां पैदा करता है और व्यवहार में संतुलन नहीं रहने देता, समरसता नहीं रहने देता, एकरूपता नहीं रहने देता और विभिन्नता उत्पन्न करता रहता है, वह कारण और हेतु अनादि है। उसका अंत किया जा सकता है । उस बिन्दु को खोजना कर्मशास्त्र का प्रयोजन है। आधुनिक मानसशास्त्रियों ने आचरण के मूल स्रोतों की खोज की और बताया कि हमारे दो प्रकार के आचरण होते हैं-सहजात और अजित । आचरण के पीछे कोई-न-कोई प्रवृत्ति होती है। कोई आदत होती है। कोई स्वभाव होता है । एक होता है सहजात स्वभाव और एक होता है अजित स्वभाव । सहजात वह है जो मनुष्य जन्म से लेकर आता है। अजित वह है जो विभिन्न वातावरण में, विभिन्न प्रकार की परिस्थिति में अजित होता है। सहजात स्वभाव या सहजात प्रवृत्ति, अजित स्वभाव या अजित प्रवृत्ति-ये आचरण के दो मूल स्रोत हैं। विभिन्न मानसशास्त्रियों ने इन स्रोतों की भिन्न-भिन्न संख्या गिनाई है। किसी ने तेरह, किसी ने चौदह और किसी ने एक। ये मौलिक मनोवृत्तियां हैं। काम (सेक्स) मनुष्य की एक मौलिक मनोवृत्ति है। लड़ाई, युद्ध, संघर्ष-यह भी मनुष्य की मौलिक मनोवृत्ति है। भूख, समूह में रहना-यह भी मौलिक मनोवृत्ति है। जिजीविषा-जीने की इच्छा-यह भी मौलिक मनोवृत्ति है। आदमी जीना ६६ : चेतना का ऊर्वारोहण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003090
Book TitleChetna ka Urdhvarohana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1978
Total Pages214
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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