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________________ कैसे होता है गुणों का विकास ? ७९ चित्र रहे, हमारे सामने बार-बार अच्छी स्मति रहे तो व्यक्ति में विशेषता का परिणमन होता चला जाएगा। बार-बार बुराई को देखो तो अच्छाई होते हुए भी बुराई का परिणमन होता चला जाएगा। इस सिद्धांत को भगवान् महावीर ने एक शब्द में रख दिया-'अभ्यासवर्तिता-तुम गुण ग्रहण करने वाली दृष्टि का निर्माण करो। गुणों को देखो, इसी का नाम है-अभ्यासवर्तिता । शाब्दिक दष्टि से इसका अर्थ है-निकट रहना किन्तु इसका तात्पर्यार्थ यह नहीं है। निकट रहने का तात्पर्य है विशेषताओं के निकट रहना, निरन्तर विशेषताओं को ग्रहण करने वाली दृष्टि का निर्माण करना । उस गुणग्राहिणी दृष्टि का निर्माण, जो विशेषता को पकड़े, हर वस्तु से उपयोगिता को निकाल ले, काम की चीज को निकाल ले। आदमी विशेषताओं को पकड़ सके, इस दृष्टि का निर्माण होना भी कठिन है। इसीलिए कहा गया-अभ्यासवर्तिता जागे। अगर मैं शब्दों को बदल कर कहूं तो इसका अर्थ हो जाएगा-विशेषता का सम्मान करने वाली दृष्टि का निर्माण । विशेषता को सम्मान दिया, विशेषता बढ़नी शुरू हो जाएगी। आचार्य एक सामान्य साधु या साध्वी की विशेषता का गुणगान करते हैं। हमारी भाषा में इसे कहते हैं, मुनि को इतना सराहा कि आत्मदर्शी बना दिया। मर्यादा बनाने से मर्यादा कभी चिरजीवी नहीं बनती। इसके लिए हर सदस्य में उस विशेषता को जगाना होता है, उस विशेषता का उद्दीपन करना होता है। यह है विशेषता के उद्दीपन का सूत्र । वैयक्तिक विशेषता हो या संघीय विशेषता । प्रश्न है-विशेषता का उद्दीपन कैसे किया जाए ? उसका पहला सूत्र है-अभ्यासवर्तिता। परछन्दानुवर्तिता गुणों के उद्दीपन का दूसरा सूत्र है-'परछंदानुवर्तिता।' इसका तात्पर्य है-वृद्ध लोगों के अनुभव का सम्मान करना । जिन्होंने काफी अनुभव पाए हैं, बहुत गर्म-नर्म देखा है, सहा है, उनके अनुभवों का सम्मान करना, हजारों वर्षों के जो अनुभव हैं, उनका सम्मान करना । हम हजारों वर्ष पुराने आगम क्यों पढ़ते हैं ? अगर हम उन्हें पढ़कर अनुभव को नहीं जानेगे तो आदमी इतना दरिद्र और विपन्न बन जाएगा कि उसके पास कुछ नहीं बचेगा। अनुभव एक बहुत बड़ी सम्पदा है। दूसरे के अनुभव का, दूसरे के विचार का, दूसरे के परामर्श का सम्मान करना विशेषता के जागरण का एक बहुत बड़ा हेतु बनता है। कार्यहेतु गुण के उद्दीपन का तीसरा कारण है-कार्यहेतु । सूत्र संक्षिप्त है पर इसके पीछे जो चिन्तन है, वह गहरा है। यह एक सामाजिक विशेषता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003088
Book TitleManjil ke padav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages220
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size9 MB
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