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________________ मोलिक मनोवृत्तियां कारण की खोज प्रश्न है-ऐसा क्यों होता है ? मूल कारण क्या है ? जैन आचार्यों ने इस मूल कारण की खोज की। तत्त्वार्थ भाष्य का महत्त्वपूर्ण वाक्य है' परतः परत: प्रीतिप्रकर्षविशेषोनुपमगुणो भवति प्रवीघारिणामल्पसंक्लेशत्वात् परेऽप्रवीचाराः अल्पसंक्लेशत्वात् । स्वस्था: शीतीभूताः । पञ्चविधप्रवीचारोदभवादपि प्रीतिविशेषादपरिमितगुणप्रीति प्रकर्षः परमसुखतृप्ता एव भवन्ति । ___कहा गया-जैसे संक्लेश कम होता चला जाएगा वैसे-वैसे वृत्ति का उन्नयन होता चला जाएगा। वृत्ति के उन्नयन का हेतु है अल्प संक्लेश । संक्लेश ज्यादा होता है तो वृत्ति बढ़ती चली जाती है। संक्लेश की कमी होती है तो वृत्ति शांत होती चली जाती है । कायप्रवीचार में संक्लेश ज्यादा होता है, सुख कम । स्पर्श प्रवीचार में संक्लेश कम होता है, सुख ज्यादा । जैसे जैसे प्रवीचार आगे बढ़ेगा, वैसे-वैसे संक्लेश कम होगा, सुख बढ़ता चला जाएगा। सबसे ज्यादा सुख मिलेगा अप्रवीचार में। जो अनुत्तर विमान के देवता हैं, ग्रेवेयक हैं, वे स्वस्थ रहते हैं। उनमें उत्तेजना होती ही नहीं है । जब उत्तेजना जागती है, आदमी ऊष्णीभूत हो जाता है। वे देवता शीतीभूत होते हैं । वे अरतिक और आत्मस्थ रहते हैं। पांच प्रकार के जो प्रवीचार हैं, उनमें जितना प्रीति का प्रकर्ष नहीं होता, उससे हजार गुना अधिक प्रीति का प्रकर्ष होता है अप्रवीचार में । वे देवता निरन्तर परमसुख में तृप्त होते हैं । संक्लेश है आश्रव इसका तात्पर्य है-जैसे जैसे अप्रवीचार की ओर बढ़ेंगे, सुख का प्रकर्ष बढ़ता चला जाएगा। प्रवीचार से चले, अप्रवीचार तक पहुंचे, इसका अर्थ है-सुख बढ़ता चला गया, संक्लेश घटता चला गया। निष्कर्ष यह है-संक्लेश जितना ज्यादा, सुख उतना कम । संक्लेश जितना कम, सुख उतना ज्यादा । कहा जाता है-वीतराग को सुख इतना ज्यादा होता है कि दुनिया के सुखों से उसकी कोई तुलना नहीं हो सकती। हम इस महत्त्वपूर्ण बिन्दु को पकड़ें-संक्लेश जितना कम होगा, सुख उतना ही अधिक मिलेगा। वृत्तियों का संचालन होता है संक्लेश के द्वारा। संक्लेश है आस्रव, क्रोध, मान, माया और लोभ की उत्तेजना । जब आदमी उत्तेजना में नहीं होता है, तब उसके संक्लेश भी कम होगा, उसे कम वस्तु के सेवन में भी प्रीति ज्यादा मिलेगी, सुख ज्यादा मिलेगा। साथ-साथ पढ़ें यह एक महत्त्वपूर्ण प्रसंग है। इसे आत्मविज्ञान का कहें या मनो१. तत्त्वार्थ भाष्य ४/९-१० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003088
Book TitleManjil ke padav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages220
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size9 MB
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