________________
मंजिल के पड़ाव
है, मूल्य है । अगर बड़ा बनने की भावना पद के साथ जुड़ी रहे तो बड़ी समस्या पैदा होती है । यह पदार्थवादी दृष्टिकोण का ही परिणाम है। अध्यात्मवादी के मन में भी बड़ा होने की भावना प्रबल होगी पर वह बड़प्पन भीतर से फूटेगा। आचार्यश्री द्वारा रचित एक पद्य है-काम पीछे नाम, केवल नाम से नुकसान है-यह पद्य एक नई दृष्टि देता है । भीतर से फूटता है बड़प्पन
हम इस चर्चा को नई दृष्टि से लें। यह नहीं कहा गया-बड़ा बनने की भावना मत रखो। ऐसा कहने का अर्थ है विकास की भावना को रोकना । अध्यात्म के क्षेत्र में व्यक्ति को इतनी स्वतंत्रता दी गई—तुम नर से नारायण और आत्मा से परमात्मा बन सकते हो। इस स्थिति में यह कैसे कहा जा सकता है कि तुम बड़प्पन की भावना मत लाओ। पर वह बड़प्पन कहां से फूटे । यह प्रदत्त न हो, आरोपित न हो किन्तु अपने भीतर से फूटे । जो व्यक्ति अपने भीतर से महान् बनने की प्रक्रिया शुरू कर देता है, वह सचमुच जितना बड़ा बनता है उतना बड़ा दुनिया में कोई आदमी नहीं होता। एक योगी और साध को सारी दुनिया बिना कहे पूजने लग जाती है । क्योंकि बड़प्पन उसके भीतर से फूटता है। जो भीतर में मिट्टी के गोले जैसा बन जाता है, दुनिया का कोई भी ताप उसे नष्ट नहीं कर सकता और ऐसा व्यक्ति ही वास्तव में महान् होता है । महानता की भाषा
हम महानता की भाषा को समझे । साधना के क्षेत्र में रहने वालों के मन में यह बात आ जाए-बाहर से आने वाला बड़प्पन एक व्यवहार है, व्यवस्था की बात है किन्तु वास्तव में बड़प्पन अपने भीतर से फूटना चाहिए । सामर्थ्य अपने भीतर में जागृत होना चाहिए । एक व्यक्ति जिसके अन्तराय कर्म का क्षय हो जाता है, उसमें दान की शक्ति आ जाती है । वह एक तिनका हाथ में लेता है और उसमें से सारी दुनियां को बड़ा से बड़ा दान दे सकता है । यह आत्मिक शक्ति है । आत्मा में जितनी ताकत है, उतनी किसी बाह्य पदार्थ में नहीं है।
इन तीनों नयों से हम गोले और आदमी की तुलना करें, अध्ययन करें तो जीवन का एक नया दर्शन, एक नई दृष्टि प्राप्त होगी। उस दृष्टि के आधार पर अपने आपको महान् बनाने का एक स्वर्ण-सूत्र हमारे हाथ लग जाएगा।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org