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मंजिल के पड़ाव
जब कोई रोग या समस्या आती है, आदमी विचलित हो जाता है । उस समय एक आलम्बन सूत्र बनता है, यह चिन्तन-अर्हत्, बड़े-बड़े साधक और तपस्वी, जिनके कोई रोग या समस्या नहीं होती, वे भी तपस्या करते हैं । वे एक प्रकार से जानबूझकर वेदना की उदीरणा करते हैं। मेरे शरीर में सहज ही बीमारी आ गई है तो मुझे उसे शांति या धैर्य के साथ झेलना है, सहना है । मन को उच्चावच नहीं बनाना है। आगे बढ़ने के लिए, लक्ष्य तक पहुंचने के लिए आदर्श का होना जरूरी है । आदर्श से हमारी प्रेरणाएं निरंतर जागृत रहेंगी। हमारा आदर्श है-अर्हत् । जब अर्हत् सहन करते हैं तब मैं क्यों न करूं। यह चिन्तन व्यक्ति को सहिष्णु बना देता है । वेदना के प्रसंग पर सहिष्णुता बहुत आवश्यक है।
(ये चार सुखशय्याएं जागरूकता के सूत्र हैं । सुख शय्या में रहना और जागृत रहना बड़ी बात है। जब-जब आदमी में संवेग जागता है, तब-तब वह आदमी को सुला देता है (जब-जब वैराग्य जागता है तब तब वह आदमी को जगा देता है । जागरूकता के इन सूत्रों पर हम थोड़ा मनन करें, चिन्तन करें, प्रयोग और अभ्यास करें, तो निश्चित ही हम ऐसी सुखशय्या को उपलब्ध हो सकते हैं, जहां जाने पर आदमी को कोई दुःखी न बना सके ।
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