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________________ शय्या जागने के लिए ५९ बड़ा है व्युत्सर्ग । और सब साधन हैं, व्युत्सर्ग है हमारा साध्य । हमें व्युत्सर्ग की भूमिका तक पहुंचना है । आत्मवादी का सदा यह लक्ष्य रहेगा-जो सहज ही मिल गया, वह अच्छी बात है। यदि नहीं मिला तो भी वह सोचेगामुझे उसे छोड़ना ही है एक दिन । मुझे व्युत्सर्ग की दिशा में जाना दो दिशाएं दो दिशाएं हैं--पदार्थाभिमुख दिशा और आत्माभिमुख दिशा । आत्माभिमुख दिशा व्युत्सर्ग की दिशा है । यह चिन्तन रहेगा तो व्यक्ति सुख शय्या में भी जागता रहेगा, कोई उसे दुःखी नहीं बना सकेगा । उसे न ईर्ष्या सताएगी, न कोई दूसरा व्यक्ति सताएगा। जिसने अध्यात्म का थोड़ा मर्म भी समझा है, वह कभी दुःखी नहीं बन सकता । जब आचार्य भिक्षु को प्रवासस्थान छोड़ने के लिए कहा गया, तब उसके प्रति द्वेष आने के कितने ही प्रसंग बने, पर उनका चिन्तन आत्माभिमुखी बना रहा । उन्होंने सोचा-कुछ समय बाद विहार करेंगे, उस समय छूटेगा यह स्थान । कुछ पहले छूट गया है तो कोई बात नहीं है। अनासक्ति - तीसरी सुखशय्या है-इन्द्रिय विषयों के प्रति अनासक्ति । पांच इंद्रियां और उसकी वृत्तियां आदमी को सुला देती हैं, मूर्छा में ले जाती हैं। उनके प्रति अनास्वाद होना बहुत बड़ी साधना है। जो अनासक्त हो जाता है, वह सचमुच सुख की शय्या में रहता है। जिसने इन्द्रिय-विषय पर विजय प्राप्त कर ली, वह सचमुच अजेय बन जाता है। उसे कोई भी पराजित नहीं कर सकता। यह कठिन तो बहुत है । बहुमत है इन्द्रिय की तरफ ले जाने वालों का, अल्पमत है इन्द्रिय विजय की ओर ले जाने वालों का । भगवान् ने बताया-वहुमत की बात अच्छी नहीं है। मैंने जब इसे पढ़ा तब यह लगामहावीर ने शायद लोकतंत्र को नहीं देखा इसीलिए ऐसी बात कही किन्तु जब गांधी को पढ़ा तो मुझे लगा-जो लोकतंत्र में जीने वाले लोग हैं, वे भी ऐसा ही सोचते हैं। महात्मा गांधी ने लिखा-बहुमत का मतलब है नास्तिकता। जहां प्रश्न सत्य का है, वहां बहुमत या अल्पमत की बात नहीं आती । हम बहुमत की बात छोड़ दें। यदि अल्पमत भी सत्य के साथ है, तो उस अल्पमत का बड़ा महत्त्व है । जो इन्द्रियों को खुली छूट देते हैं, वे तेजी से दुःख की ओर अग्रसर होते चले जाते हैं। जिन्होंने इन्द्रियों पर प्रतिबंध लगाया है, वे दुःख से सुख की ओर बढ़े चले जा रहे हैं। सहिष्णुता चौथी सुखशय्या है-वेदना के आने पर भी विचलित न होना । जब Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003088
Book TitleManjil ke padav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages220
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size9 MB
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