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________________ मजिल के पड़ाव सुखशय्या चार हैं१. विश्वास, आस्था २. संतोष ३. अनासक्ति ४. सहिष्णुता पहली सुख शय्या है आस्थाशील होना । जिस मार्ग को स्वीकारा है, उसके प्रति विश्वास होना चाहिए । एक मुनि बना, उसके मन में संदेह पैदा हो गया-मैंने निग्रंथ प्रवचन को स्वीकारा है, पर उसमें तो यह नहीं है, वह नहीं है । हजारों लोगों के बीच में रहना बड़ी समस्या है । लोग कितनी बातें सुनाते हैं । अगर सुनने वाले का अपना विचार परिपक्व न हो तो वह डगमगा जाएगा । समुद्री तूफान से भी भयंकर है यह विचारों का तूफान । ध्यान करने वालों से कहा जाए-क्या रखा है ध्यान में ? ध्यान से क्या हो जाएगा ? दस मिनट ऐसी बात कही जाए तो दस महीने के किए कराए पर पानी फिर जाए। आदमी का स्वभाव है-कोई मनभावनी बात सुनता है तो प्रशंसा कर देता है। अप्रिय बात सुनता है तो कटु आलोचना कर देता है। व्यक्ति यह मानकर न चले-मैं काम करूं किन्तु मेरी आलोचना न हो। वह यह मानेगा तो इससे बड़ी कोई भूल नहीं होगी। उसे यह मानकर चलना चाहिए-मैं बोलूंगा, चलूंगा, कोई काम करूंगा तो आलोचना होगी। आलोचना से मुक्त होना भगवान् के भी वश की बात नहीं है। जो आदमी आलोचना के आधार पर अपने विचार को डगमगा देता है, वह सचमुच दुःख के सागर में निमग्न हो जाता है । इसीलिए कहा गया-तुम जो भी करो, निःशंक होकर पूर्ण आस्था के साथ करो। यदि बीच में कोई विचारों का तूफान न आए तो यह आस्था की नौका तुम्हें पार लगा देगी। पहली सुख शय्या है निःशंका, निःशंक रहना । जो मार्ग स्वीकारा है, उस मार्ग पर पूर्ण आस्था के साथ चलते रहना । प्राप्त में संतोष दूसरी सुखशय्या है-प्राप्त में संतोष करना। एक को ज्यादा मिला, एक को कम मिला । विचार आता है ईर्ष्या का। यह व्यावहारिक और सामाजिक बात है किन्तु जिस व्यक्ति ने अध्यात्म को समझा है, उसका मार्ग बदल जाएगा । उसके चिंतन की धारा और दृष्टिकोण बदल जाएगा। वह सोचेगा-यह नहीं मिला तो कोई बात नहीं, मुझे तो छोड़ना ही है, पाना मेरा लक्ष्य नहीं है। आध्यात्मिक व्यक्ति यह मानकर चले-मुझे सब कुछ छोड़ना है, इस शरीर को भी छोड़ना है । मैं मानता हूं-ध्यान से भी १. ठारणं ४४५१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003088
Book TitleManjil ke padav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages220
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size9 MB
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